Thursday, September 20, 2018

"तेजाजी-पेमल : नागवंशों की परस्पर शत्रुता की पृष्ठभूमि में विवाहित युगल की लोकगाथा"

"तेजाजी-पेमल : नागवंशों की परस्पर शत्रुता की पृष्ठभूमि में विवाहित युगल की लोकगाथा"
(भाद्रपद शुक्ल पक्ष दशमी, तेजाजी देहावसान दिवस)
कहानी हजार साल पुरानी है. 
ब राजस्थान के वर्तमान नागौर क्षेत्र के नागाणा प्रदेश के खरनाल गण के जाट शासक बोहित राज धोलिया थे।
उनके पुत्र ताहड़ देव थे.
उनकी पत्नी थीं,
अजमेर के किशनगढ़ के पास त्योद गाँव के गणपति दुलन सोढी की कन्या-
राम कुँवरी.
बचपन में घर पर उन्हें सब सुगणा कहते.
विवाह के 12 वर्ष तक राम कुँवरी के कोई संतान नहीं हुई।
अतः अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए ताहड़ जी के नहीं चाहते हुये भी राम कुँवरी ने अपने पति का दूसरा विवाह कर दिया।
यह दूसरा विवाह रामी देवी के साथ सम्पन्न करवा दिया।
द्वितीय पत्नी रामी के गर्भ से ताहड़ जी के रूपजीत (रूपजी) , रणजीत (रणजी), महेशजी, नगजीत ( नगजी) पाँच पुत्र उत्पन्न हुये।
राम कुँवरी को 12 वर्ष तक कोई संतान नहीं होने से अपने पीहर पक्ष के गुरु मंगलनाथ जी के निर्देशन में उन्होने नागदेव की पूजा-उपासना आरंभ की। 

12 वर्ष तक नागदेव की आराधना के बाद उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई,
जिसका नाम रखा-
कुँवर तेजपाल.
प्यार से सब उन्हें तेजा जी कहते.
कुछ समय बाद राम कुँवरी को एक पुत्री राजल भी प्राप्त हुई।
ताहड़ देव की रामी देवी से पहले ही पाँच संतानें हो चुकी थीं,
अत: राम कुँवरी से जन्मे तेजा जी उनकी छठी संतान के रूप में माने गए.
तेजा के जन्म के तीन माह बाद पूनम के दिन पनेर के गणपति रायमल जी मोहता के घर उनकी पत्नी बोदल दे से एक कन्या ने जन्म लिया।
पूर्णिमा के प अक्षर को लेकर कन्या का नाम रखा गया- पद्मा।
प्रेम से सब उन्हें पेमल कहते.
बोलचाल में पेमल दे नाम ही प्रसिद्ध हुआ।
तेजा जी के जन्म के कुछ समय बाद ही उनके घर नीले रंग की घोड़ी आ गई, जिसका नाम लीलण रखा गया.
कहते हैं,
लीलण का जन्म तेजा जी के लिए ही लगभग उनके साथ ही हुआ था।
दरअसल उस समय प्रसिद्ध लक्खी या लाखा बंजारा के पास शुभ लक्षणों से युक्त सफ़ेद रंग की दिव्य घोड़ी थी।
कहते हैं, उस घोड़ी के गर्भ में अग्नि की अधिष्ठात्री शक्ति लीलण के रूप में पल रही थी।
एक दिन जब लाखा बंजारा अपना माल खरनाल के रास्ते सिंध प्रदेश ले जा रहा था,
तब खरनाल में ही आखा तीज के दिन लीलण का जन्म हुआ।
लीलण के जन्म लेते ही उसकी मां की मृत्यु हो गई।
लाखा ताहड़ जी से परिचित था।
वह उनसे मिला,
तो ताहड़ जी ने उस घोड़ी की बछिया को रख लिया।
उसे गाय का दूध पिलाकर बड़ा किया।
बाद में लीलण सदा तेजाजी के साथ रही.
तेजाजी के जन्म के बाद माता राम कुँवरी ने पति से कहा कि
पुत्र प्राप्ति की मनोकामना पूर्ण हुई है,
इसलिए पुष्कर स्नान और नागदेव की बांबी पर नमन के लिए चलना चाहिए।
देवप्रबोधिनी एकादशी निकट थी.
उचित पर्व जान कार्तिक की दशमी को ताहड़ जी तेजा को लेकर सपत्नीक पुष्कर यात्रा को निकल पड़े।
साथ में इष्ट मित्र और तेजा के काका आसकरण जी भी थे।
पुष्कर में स्नान करने के बाद बूढ़े पुष्कर के नागघाट पर तेजा को लिटाकर विधिवत पूजा अर्चना की और सुखद भविष्य की मंगलकामना की ।
संयोगवश उसी समय पनेर के गणपति रायमल मोहता भी पुष्कर स्नान के लिए आए हुये थे।
चूँकि उनके घर में भी पेमल के रूप में पुत्री धन की प्राप्ति हुई थी,
अत: दोनों परिवारों ने एकादशी से पूर्णिमा तक साथ-साथ स्नान, ध्यान, देवदर्शन और दान आदि किए।
इस दौरान दोनों का परिचय घनिष्ठता में बदल गया।
तब तेजा 9 माह के थे और पेमल 6 माह की थी।
प्राचीनकाल में बाल विवाह की परंपरा आम थी.
तेजा के काका आसकरण और पेमल के पिता रायलल जी मोहता ने आपसी घनिष्ठता को रिश्ते में बदलने का प्रस्ताव रखा,
तो ताहड़ जी ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
विवाह की स्वीकृति के लिए दोनों पक्षों के मामाओं को भी बुलाया गया था।
फेरों का मुहूर्त पूर्णिमा को गोधूलि वेला निश्चित था।
तेजा के मामा हेमूजी सोढ़ी तो सही समय पर पुष्कर पहुँच गए थे,
लेकिन पेमल के मामा खाजू काला को जायल से पुष्कर पहुँचने में काफी देर हो गई थी।
वह फेरे लेने के समय पहुंचे.
फेरे होने के बाद पेमल के मामा खाजू काला को पता चला कि
उनकी भांजी का विवाह उनके शत्रु पक्ष के गणपति ताहड़ देव के पुत्र तेजा के साथ सम्पन्न हुआ है।
काला और धोलिया के बीच कई पीढ़ियों से दुश्मनी चली आ रही थी।
अत: पेमल के मामा को यह संबंध गले नहीं उतरा।
वे पुष्कर घाट पर ही ताहड़ देव को भला बुरा कहने लगे।
विवाद इतना बढ़ गया कि
ताहड़ जी ने तलवार उठाकर पेमल के मामा की हत्या कर दी।
रायमल मोहता बड़े समझदार गणपति थे।
वे इस घटना से दु:खी तो हुये,
परंतु पेमल के मामा की अति को समझते हुये घटना को विस्मृत करना उचित समझा।
लेकिन पेमल की माँ ने बोदल दे इस घटना को दिल से लगा लिया।
उसने पुष्कर घाट पर ही प्रतिज्ञा की कि वह खून का बदला खून से लेगी।
अब आगे और कोई अनहोनी होने के भय से नागदेव की बांबी पर धोक लगाए बिना ही दोनों गणतंत्रों के गणपति अपने-अपने गंतव्यों की तरफ चल पड़े।
राम कुँवरी ने कहा कि ईश्वर की कृपा रही,
तो फिर कभी नागदेव की बांबी ढोकने आएंगे।
समय का तकाजा है कि अब हमें तुरंत खरनाल पहुंचना चाहिए.
दोनों वंश के परिजन अपने-अपने घर को प्रस्थान कर गए,
परंतु इस घटना के कारण काला और धोलिया परिवारों में दुश्मनी की खाई और गहरी हो गई।
तेजाजी की सास बोदल दे का प्रतिशोध भाव सातवें आसमान पर था।
उस समय कालिया-बालिया का आतंक बहुत था.
चांग का कालिया मीणा और बोदल दे के पीहर पक्ष का काला गोत्र का बालिया नाग
दोनों अपने क्षेत्र के आतंक माने जाते थे.
बोदल दे ने दोनों से सहायता माँगी.
कालिया-बालिया ने ताहड़ दे को बदला लेने का वचन दिया।
कालिया-बालिया ने कई बार अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु कोशिश की, पर सफलता नहीं मिली।
उन्होने कभी गायें चोरी की, कभी खेतों में आग लगाई।
वे खरनाल को परेशान करने लगे।
परंतु ताहड़ देव और खरनाल वासियों की सावधानी से कालिया-बलिया के प्रयास निष्फल हो जाते थे।
तेजाजी की आयु लगभग 9-10 होने तक सब ठीक-ठाक चलता रहा।
एक दिन तीसरे पहर अपने क्षेत्र की फसल को देखने की लालसा में ताहड़ देव घोड़े पर सवार होकर निकल पड़े।
खेतों में लहलहाती फसल को देखकर वे बहुर खुश थे।
वहीं कालिया-बालिया के दल फसलों में छुपकर घात लगाए बैठे थे।
दुश्मनों ने अचानक हमला कर ताहड़ देव की हत्या कर दी।
खरनाल से ताहड़ देव के भाई आसकरण सहायता लेकर पहुंचे और दुश्मनों का पीछा किया।
दुश्मन अधिक संख्या में थे।
इस युद्ध में तेजाजी के चाचा आसकरण भी शहीद हो गए।
बोदल दे के इस प्रतिशोध ने तेजाजी को पितृविहीन कर दिया.
माँ ससुराल छोड़कर मायके किशनगढ़ के त्योद गाँव चली गई.
तेजाजी अपने ननिहाल में पलने लगे.
सब उनकी प्रतिभा, कौशल व शौर्य से चमत्कृत थे.
समय के साथ तेजाजी बड़े हुए.
एक बार ज्येष्ठ मास में ही वर्षा प्रारंभ हो गई.
बरसात के मौसम में खेती का प्रारंभ करते समय हलसोतिया के अनुष्ठान किया जाता था,
जिसमें घर का बड़ा बेटा हल चलाता था।
संयोग से बड़ा बेटा कहीं बाहर गया था,
अत: जिम्मेदारी छोटे पर आ गई.
तेजाजी बहुत सुबह ही हल-बैल लेकर निकल गए।
पर्व का सा दिन था, बहुतेरे काम थे,
अत: तेजाजी के लिए खेत पर उनकी भाभी भोजन ले कर जरा देर से आई.
तब तक तेजाजी को भूख लग चुकी थी,
भाभी को क्रोध में कुछ कह दिया.
इस पर भाभी ने ताना दिया कि
वह भी काम में ही थी,
गोद में बच्चा है, उसकी भी देखभाल करनी होती है।
इतना ही मन मुताबिक चाहिए,
तो ससुराल पनेर जाकर पत्नी पेमल को ले आएँ.
तेजाजी को बात चुभ गई।
पारिवारिक शत्रुता के कारण माँ व परिजनों ने
तेजाजी को पेमल से उनके विवाह के विषय में नहीं बताया था.
माँ से पूछा, जिद की, तो सब कथा पता चली.
तेजाजी ने ससुराल पनेर जाकर पत्नी पेमल को लाने का निश्चय किया.
माँ ने पुरानी शत्रुता की स्मृति में उन्हें बहुत रोका,
पर वे न माने.
आनन-फानन में विवाहिता बहन राजुल को भी उसके गाँव तबीजी जाकर ले आए.
वहाँ भी चुनौतियां आईं, पर सब पार कर गए.
बहन को लाने के बाद भी माँ ने रोका, भाभी ने क्षमा माँगी,
कहा कि वह उनका विवाह अपनी बहन से करा देगी,
परंतु तेजाजी न माने.
ज्योतिषी बुलाकर जोग बँचवाया गया,
तो कहते हैं, उसे सफेद देवली के दृश्य दिखे,
वीरगति के प्रतीक पर तेजाजी न माने.
तेजाजी पेमल को लेने जब ससुराल निकल पड़े।
रास्ते में तमाम अपशकुन हुए, बाधाएँ आईं,
पर तेजाजी न रुके.
राह में बनास नदी पड़ती थी,
उसके प्रवाह में लीलण बह गई,
दोनों कोसों दूर भटक गए,
पर तेजाजी न माने.
जब तक वे पनेर पहुँचे,
गढ़ के कपाट बंद हो चुके थे।
थके हुए थे, भींगे हुए भी,
कहीं रुकने की जगह तलाशनी थी.
कोई बाग दिखा, माली से दरवाजा खोलने को कहा,
तो उसने कहा कि यह बाग रायमल जी का है,
जिसे केवल पेमल ही खोलती है।
तेजाजी ने माली को कुछ धन देकर बाग खुलवा लिया।
रात भर के विश्राम में लीलण ने बाग के बहुतेरे पौधे नष्ट कर दिये.
डरकर माली ने बात पेमल की भाभी को बता दी,
वह वहाँ राहगीर का पता करने आई,
तो पता चला कि वह तो पेमल से बालविवाहित तेजाजी है.
उसने उसे घर पर बुलाया.
तेजाजी घोड़ी पर सवार हुए पेमल के घर पहुंचे,
तो सास गायें दुह रही थी,
वे बिदक गईं.
उसने किसी अजनबी को ऐसे घोड़े पर घर में घुसते देखा,
तो वह गुस्से में बोली-
तुझे तो काला नाग डसे.
अनजाने में ससुराल पक्ष से तेजाजी की अवज्ञा हो गई थी,
तेजाजी नाराज होकर निकल गए।
जब पता चला,
तो घरवाले तेजाजी को मनाने दौड़े,
पर तेजाजी न माने.
पेमल उस समय अपनी सहेली लाछाँ गूजरी के साथ बाहर गई हुई थी,
उसे पता चला, तो उसने लाछाँ को तेजाजी के पास संदेशा लेकर भेजा.
लाछाँ ऊँट पर सवार होकर निकली,
अनेक संकटों को पार कर तेजाजी से मिली,
तो उन्हें बताया कि
पेमल के घरवाले तो उसका कहीं और विवाह करने की ठान चुके हैं,
पेमल तो तेजाजी के लिए ही जीती आई है
और यदि वे न मिले, तो वह जहर खाकर मर जाएगी.
संदेश पाकर तेजाजी लौटे,
ससुराल में अब उनका स्वागत भी हुआ.
वहीं पेमल व तेजाजी का परस्पर प्रथम परिचय हुआ।
रात हुई, दोनों अपने हृदय की बात कुछ और कह पाते कि
इसी बीत पता चला कि
उसी रात कुछ चोर लाछाँ गूजरी की गायें उठा ले गये थे.
उस समय पशुधन अमूल्य था।
राजा बाहर गए थे और भोमिया से उसकी दुश्मनी थी.
लाछाँ पूरे गाँव में सहायतार्थ फिरती रही,
मगर चोरों के भय से कोई साथ देने नहीं आया.
गोरक्षा, स्त्रीरक्षा, दुष्टदमन को अपना कर्तव्य समझ चोरों के पीछे तेजाजी निकल पड़े।
पेमल ने लगाम पकड़ ली,
बोली वह भी साथ चलेगी,
पर तेजाजी को यह स्वीकार्य न था.
पेमल ने धड़कते हृदय से तेजाजी को विदा किया।
तेजाजी ने अकेले ही चोरों का पीछा किया।
रास्ता जंगल का था.
उस समय उसमें भी आग लग रखी थी.
रास्ते मे काला नाग दिखा,
जो जंगल की आग में अधजला तड़प रहा था.
तेजाजी ने नाग को देव मानकर भाले द्वारा अग्नि से बाहर फेंक दिया।
लेकिन नाग प्रसन्न होने की बजाय नाराज होकर बोला-
तेजा।
मैं वासुकि नाग हूँ,
यहाँ सब मुझे बालू नाग कहते हैं,
मेरी जीवन संगिनी चली गयी,
मैं भी जल जाना चाहता था,
मुझे भी मुक्ति मिल जाती,
मगर तूने क्यों बचाया,
अब तो मैं तूझे डसूँगा.
तेजाजी ने कहा कि
नाग उनके लिए देवता हैं,
पर गाय उनके लिए माता है।
वह अभी उन्हें जाने दे,
चोरों से गायें छुड़ा कर वे स्वयं नागराज के पास लौट आयेंगे।
नागराज को विश्वास नहीं हुआ।
तब तेजाजी उसे सूखे खेजड़े की शाख हाथ में लेकर सूरज-चाँद की सौगंध लेते हुए वचन दिया कि वे हर हाल में वापस लौटेंगे।
वचन की गहनता जान नागराज ने बात मान ली.
वहाँ से निकल कर तेजाजी सुरसरा की घाटी में पहुँच गए,
जहाँ मंडावरी की पहाड़ियों में चोरों के साथ घमासान युद्ध हुआ।
चोरों की संख्या बहुत थी,
पर तेजा जी पराक्रम के साथ लड़ते रहे.
अंत में कुल 150 चोरों को मार कर तेजा जी गायें मुक्त करा लाए,
मगर इसमें बुरी तरह घायल भी हो गए.
तेजा जी ने गाँव पहुँचकर गायें लाछाँ गूजरी को सौंपीं.
पेमल से मिले, पर बस जैसे अंतिम विदा भर के लिए मिले.
वे नागदेवता के प्रति वचनबद्ध थे.
अत: वचन निभाने साँप की बाम्बी पर पहुँचे.
तेजा जी की वचनबद्धता से नागदेव वासुकि प्रसन्न हुए।
उन्होंने कहा कि
वे तेजाजी को डसना नहीं चाहते.
वह तो केवल परीक्षा थी.
परंतु तेजाजी ने कहा कि
शूर वचन के लिए जीते और मरते रहे हैं।
अत: वे नाग का दंश लिए बिना नहीं हटेंगे।
नाग के दंश का अर्थ था- मृत्यु,
क्योंकि नागराज के विष का कोई निदान न होता.
वचनबद्ध तेजाजी के आग्रह पर नागदेवता हार कर डसने के लिए तैयार हो गए ,
पर शायद तेजाजी को बचाने के लिए नागदेवता ने कहा,
कोई नागराज केवल कुँवारी जगह पर ही डसता है,
ऐसी जगह जो पहले से आहत हो,
उस पर दंश उसके लिए वर्जित है।
तुम्हारा तो पूरा शरीर लहुलुहान है,
डसूँ भी, तो कहाँ डसूँ?
तब तेजाजी भाला जमीन में गाड़ अपनी हाथ की हथेली सामने कर दी
और जीभ भी निकालते हुए बोले,
नागराज,
ये हाथ मेरा कर्म है और ये जुबान मेरा वचन.
ये सदा अक्षत हैं।
वचन पूरा करने के लिए आप इस पर दंश करें.
नागराज वासुकि ने हार कर यह कहते हुए तेजाजी की जीभ पर दंश किया कि
तुमने एक नागदेव के कारण देह छोड़ी है,
तुम अपने कुल के लोकदेव बनोगे,
तुम्हारा नाम सर्पदंश का रक्षक माना जाएगा।
तेजाजी नागराज वासुकि के विष के प्रभाव में लीन होते रहे.
पेमल की स्मृति लिए.
मानते हैं कि नाग का विष तो बहाना था,
नाग की कृपा से जन्मे को नाग के बहाने ही वापस जाना था।
सब बीतने के उपरांत वहां पर पेमल भी पहुंची,
परंतु तब तक तेजाजी देह त्याग कर चुके थे.
पेमल तेजाजी को विस्मृत कर सकती थी,
जैसा कि उसके परिवार व कुल वाले चाहते भी रहे होंगे,
पर पेमल ने तो तेजाजी की चिता पर सती होने का निश्चय कर लिया.
परंतु परंपरा यह थी कि चिता को आग ससुराल पक्ष से ही दिया जा सकता था.
दोनों ऐसी जगह पर थे,
जो दोनों के लिए ही अपरिचित था.
अंत में कहते हैं कि पेमल ने स्वयं ही अग्नि की भावना की और चिता में दग्ध हो गईं।
अपने स्वामी को खो चुकी लीलण रक्तरंजित खाली पीठ के साथ उनके घर पहुँची.
माँ ने सोचा की संभवतः उनका पुत्र बहू प्रेमल को विदा कर ले आया है,
पर दृश्य देख वह भी वहीं गिर पड़ीं.
तेजाजी और पेमल संभवत: एक दूसरे से कभी बहुत समय के लिए मिल नहीं सके,
परंतु दोनों की गाथा सदा के लिए स्मृतियों में विद्यमान हो गई.
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तेजाजी-पेमल की कहानी लोककथा के साथ साथ धर्म कथा का भी रूप लिए है.
यद्यपि इसमें समय के साथ बहुत कुछ कल्पित व मिश्रित हुआ होगा,
पर आस्था इसे इतिहास की तरह बाँचती है,
तिथि के विवरण के साथ.
माना जाता है कि
तेजपाल या तेजाजी का जन्म विक्रम संवत् 1130, माघ शुक्ल चतुर्दशी, (29-1-1074) के दिन हुआ था, उनके जन्म के तीन माह बाद ही विक्रम संवत् 1131 की बुद्ध पूर्णिमा (पीपल पूनम) के दिन पद्मा या पेमल का जन्म हुआ था।
दोनों के परिवार कार्तिक शुक्ल पक्ष की देवप्रबोधिनी एकादशी पर पुष्कर, अजमेर में मिले थे और इसके चार दिन बाद ही पूर्णिमा को दोनों का बाल विवाह हुआ था।
नागराज ने तेजाजी को सैंदरिया (ब्यावर,अजमेर ) गाँव में डँसा था,
और वे 30 वर्ष की अवस्था मे ही भाद्रपद शुक्ल पक्ष दशमी, दिन शनिवार, 1160 (28-8-1103) को सुरसुरा गाँव (किशनगढ) मेें दिवंगत हुए.
रामी देवी कोयलापाटन (अठ्यासान) निवासी अखोजी (ईन्टोजी) के पौत्र व जेठोजी के पुत्र करणो जी फिड़ौदा की पुत्री थीं.
तेजाजी के पिता ताहड़ जी का रामी देवी के साथ विवाह विक्रम संवत् 1116 में सम्पन्न हुआ था।
अन्य अनेक लोकदेवों की लोककथाओं की तरह
तेजा जी के साथ भी नीले रंग की घोड़ी रही.
इस लीलण घोड़ी का जन्म विक्रम संवत् 1131 (1074 ई.) की आखा तीज के दिन दोपहर में हुआ था।
लोकपरंपरा तेजाजी को सत्यवादी वीर लोकनायक व आराध्य देव के साथ-साथ सर्पदंश से रक्षक व कृषि के संवर्धक के रूप में भी पूजती है।
तेजा जी के लिए प्रसिद्ध है कि
उन्होंने अपने समुदाय के किसानों को खेती के नये तरीके सिखाये.
कहते हैं,
हल चलाकर बीज बोने का तरीका उन्होंने ही बताया.
एक लोकमान्यता के अनुसार तेजाजी लक्ष्मण की तरह शेषावतार हैं.
इसके अनुसार जब राम वनवास पर थे, तब लक्ष्मण ने तेजाजी के पूर्वजों के खेत से तिल खाये थे। तब ही तेजा जी के रूप में अंशावतार का वचन दिया था।
एक कहानी के अनुसार तेजाजी का जन्म नाग की ही कृपा से हुआ था,
जन्म पर पुष्कर में नागपूजा न हो पाई,
सो नागदंश से उनकी मृत्यु हो गई.
हर पुरानी संस्कृति के अपने लोकदेव-देवी रहे हैं।
राजस्थान में पंचपीरों के रूप में रामदेव जी, गोगा जी, पाबू जी, मंगलिया मेहा जी व उनकी संतान हरभू जी या हड़बू जी की मान्यता है.
सबकी लोकगाथाओं में बहुत कुछ समान है,
जैसे नीले घोड़े या घोड़ी की कहानी, दलित-वंचित वर्ग का संरक्षण, गोरक्षा में प्राणदान, सर्प की कथा से जुड़ाव आदि.
विशेषत: गायों की चोरी व रक्षा की कहानी वैदिक काल में पणियों द्वारा चुराए जाने, सरमा के द्वारा पुकारे जाने व इंद्र के द्वारा बचाए जाने के युग से बहुत बार दुहराई गई है।
तेजाजी पंचपीरों में परिगणित नहीं,
किंतु उनसे बहुत कम भी नहीं.
संयोगवश रामदेव जी की जयंती ही तेजाजी के देहावसान की तिथि है।
अलग-अलग समुदायों के लोकमानस ने दोनों को शिरोधार्य किया.
मान्यता है कि भाद्रपद शुक्ल दशमी को बाबा रामदेव ने जीवित समाधि ली थी।
एक रुचिकर तथ्य है कि
पंचपीरों में जो दो लोकदेव नहीं परिगणित हैं,
गूजर परंपरा के देवनारायण
तथा जाट परंपरा के तेजा जी,
ये दोनों क्रमशः विष्णु व शेष के अवतार माने जाते हैं।
तेजाजी के बलिदान स्थल सुरसुरा में उनका मंदिर है।
कालांतर में और तमाम जगहों पर उनके मंदिर बने.
उनके चमत्कारों की भी कहानियां हैं,
जैसे सूखी हल की लकड़ी का हरा होकर पेड़ बन जाना,
खारे तालाब का पानी मीठा हो जाना,
बैल चोरों का अंधा हो जाना, फिर ठीक हो जाना आदि.
लगभग ऐसी ही चमत्कारिक कहानियां अन्य देवों की भी हैं.
लोककथाओं में बहुतेरे रूपांतर हैं.
पात्रों व नामों में भी बहुतेरे जोड़-घटाव हैं.
कहीं लाछाँ गूजरी के साथ-साथ हीरा गूजरी का नाम मिलता है।
कहीं पेमल का नाम सुंदरी मिलता है।
ताहड़ जी का नाम ताहण या ताहण भी लिखा जाता है।
उपनाम राव, राम, राज तीनों मिल जाता है।
रायमल का उपनाम मोहता, मुहता, मेहता आदि के अतिरिक्त झांझर या जागी भी मिल जाता है।
राम कुँवरी भी कहीं राम कँवरी हो जाता है।
ताहड़ जी के रामकुँवरी के अतिरिक्त दूसरे विवाह रामी देवी का उल्लेख संभवतः केवल कुछ भाटों की पोथी में है, अन्यत्र नहीं.
ऐसे ही कई घटनाओं में भी परिवर्तन है।
कहीं वे एक बार गूजरी की गायें ले आते हैं,
तो उनमें लाछाँ का प्रिय बछड़ा काणा केरड़ा नहीं होता,
वे उसे लेने फिर जाते हैं,
फिर से युद्ध करते हैं।
कहीं तेजाजी के चार विवाह और हैं,
जिनमें पेमल अंतिम है.
परंतु कथा से यह बात सुसंगत नहीं है।
कहानी में दो नागवंशी कुल का पुरातन संघर्ष भी है,
काला तथा धोलिया वस्तुतः कृष्ण व धवल नागवंश के द्योतक हैं.
आज की दृष्टि से देखें,
तो कुछ और लोककथाओं में भी परस्पर शत्रु रहे प्रेमी या दंपती युगल की कथाएँ हैं.
इनमें रोमियो जूलियट के तो तमाम रूपांतर हुए हैं।
तेजाजी का पेमल की सहेली लाछाँ के कहने पर गाय बछड़े की रक्षा के लिए चलना कुछ सीमा तक चंद्रधर शर्मा गुलेरी की "उसने कहा था" कहानी की तासीर रखता है,
क्योंकि लाछाँ तो बहाना है, तेजाजी वचन तो पेमल को दे रहे होते हैं।

1 comment:

  1. यह सर्वमान्य सत्य है कि जाट जाति अत्यंत ही देशप्रेमी, स्वावलम्बी, कर्मशील, परिश्रमी, जुझारू, शौर्यवान, दयालु एवं स्वाभिमानी जाति है। इसके उपरांत भी इस जाति को इतिहास में न के बराबर ही स्थान मिला है।
    http://jatnayak.com/bravery-of-jats/

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