चौधरी कुम्भाराम राजस्थान के उन जननायकों में से थे जिन्होने जिंदगी भर अन्याय, शोषण और अत्याचार के विरुद्ध तथा गरीबी व किसानों के हितों के लिए संघर्ष किया।
वे निडरता व साहस के धनी तथा किसानों के हिमायती व प्रखर वक्ता थे। उनकी जीवनी स्कूलों में पढ़ाई जानी चाहिए जिससे आज का युवा वर्ग समझ सके कि हमारे पूर्वजों ने कितने संघर्ष से अधिकार और आजादी प्राप्त की है जिसका उपयोग आज हम कर रहे हैं और हमारा समाज दिनों-दिन प्रगति के राह पर आगे बढ़ रहा है।चौधरी कुम्भाराम का जन्म : मनसुख रणवां[ ने लेख किया है कि .... चौधरी कुम्भाराम का जन्म हिंदुस्तान के तत्कालीन पंजाब की रियासत पटियाला के पुलिस थाना ढूंढाल के छोटा खेरा गांव में 10 मई 1914 को गरीब किसान भैराराम सुंडा की धर्मपत्नी जीवणी देवी की कोख से हुआ। भैराराम के दो पुत्र पहले ही ईश्वर को प्यारे हो गए थे। तभी तीसरे बालक का नाम कुरड़ा रखा। इकलौते पुत्र की एकमात्र बड़ी बहन का नाम महकां था।
छोटा खैरा से फेफाना आगमन: बालक कुरड़ा जब 12 माह का हो गया तो भैराराम सुंडा का परिवार छोटा खैरा गांव को हमेशा के लिए अलविदा कह कर मरुस्थली इलाके में राजस्थान की बीकानेर रियासत के गांव सौदानपुरा में बसा। तत्पश्चात गंगानगर जिले की नोहर तहसील के फेफाना गांव में आकर बस गया। इसी गाँव में कुंभाराम का बाल्यकाल बीता और उन्होने शिक्षा प्राप्त की। भैराराम के वंशज मूल रूप से सीकर जिले के कूदन ग्राम से उठकर गए थे। सामंतों एवं अकाल से मुक्ति पाने के लिए भैराराम के परिवार को कूदन छोड़ना पड़ा था।
देर से बोलना सीखा : बालक कुरड़ा की आयु 4 वर्ष हो गई थी लेकिन उसने बोलना नहीं सीखा था। मां बाप बड़े चिंतित थे।
कुरड़ा की मां ने हर देवता से मन्नत मांगी। लेकिन बालक बोलना नहीं सीख पा रहा था। वक्त ने जीवनी के साथ एक और खिलवाड़ किया और उसका सुहाग उजड़ गया। कुरड़ा को भी अपने पिता की मौत का गहरा सदमा पहुंचा। बचपन में ही बाप का साया उठना उसको काफी पीड़ा-दायक लगा। कुछ ही समय बाद बालक ने अचानक बोलना शुरु कर दिया। माँ ने राहत की सांस ली।
मौत के मूंह से निकला: बालक कुरडा 5 वर्ष का हो गया तब एक दिन चौमासे में कुरडा बच्चों के साथ जोहड़े में नहाने चला गया। बच्चे तालाब की तीर पर नहाने लगे। कुरड़ा भी थोड़ा सा आगे बढ़ा कि गड्ढे में पैर फिसल गया। कुरड़ा पानी में चला गया और पैर कांप में धंस गए। बच्चों ने हो-हल्ला किया। पांच सात लोग वहां पशुओं को पानी पिला रहे थे। एक तैराक ने कुरडा को ढूंढने की काफी मशक्कत की। अंत में गड्ढे में से उसके पैर से बालक ऊपर आया। शरीर में भरे पानी को निकाला। तब जाकर कुरड़ा को जीवनदान मिला। जीवनी देवी खुश हुई कि ईश्वर ने बालक को पुनः मां की गोद में दे दिया है।
कुंभा का स्कूल में प्रवेश: कुरडा 6 वर्ष का हो गया। स्कूल में भेजने के काबिल हो गया। जीवनी तो निरी अनपढ़ थी। उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर था। पुत्री महकां तो अनपढ़ ही रही लेकिन मां के हृदय-आंगन में लगन लगी कि बच्चे का तो दाखिला स्कूल में अवश्य ही करवाना है। सामंती जमाना था। बालक को स्कूल में भेजने का मतलब जागीरदारों से दुश्मनी मोल लेना था। उस वक्त शिक्षा का चिराग जलाने के लिए आर्यसमाजी लोग जान को हथेली में रखकर गांव में स्कूल खोलते थे। जीवणी देवी पुत्र को स्कूल में ले गई। उसने अपने बालक का नाम कुरडा बताया। अध्यापक ने कुरड़ा को परखा, फिर कुरड़ा की जगह प्रवेश रजिस्टर में कुंभाराम नाम लिख दिया।
जागीरी जुल्म: उस समय राजस्थान में किसान वर्ग का कोई धणी-धोरी नहीं था राम भरोसे ही किसान-मजदूर का काम चलता। समय-समय पर राजा महाराजाओं के जुल्म भी सहने पड़ते। कुरडा का परिवार भी समय-समय पर इन जुल्मों की चपेट में आ जाता था।
कुंभाराम की मां दूसरों के खेतों में काम करती तथा मजदूरी से घर चलाती। गांव की औरतें कुंभा की मां को उलाहने देती, वे कहती, "अरे जीवनी! तू अपने बेटे को क्यों बर्बाद कर रही है? उसे पढ़ा कर कौनसी थानेदारी दिलाएगी? तू तो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही है। बुढ़ापे में पड़ी पड़ी सड़ोगी, कोई पानी भी नहीं पिलाएगा। भलाई इसी में है कि बेटे की पढ़ाई छुड़ाकर घर का काम करवा। वह तेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा। "
कुंभा की माँ ने किसी की नहीं सुनी। जीवनी का सपना था कि उसका बेटा पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बने। समाज व देश की सेवा करे।
छुआछूत का पहला अनुभव: पढ़ते-पढ़ते कुंभा को कड़वे अनुभव हुये। जब वह कक्षा चार में पढ़ता था, सहपाठियों के साथ खेलता हुआ एक दिन अपने सहपाठी जयपाल शर्मा के साथ उसके घर चला गया। वहां लुका-छिपी खेलने लगा। कुंभा की छुपने की बारी आई। वह एक बड़े मटके के पीछे छुप गया। ब्राह्मणी ने कुंभा को मटके के हाथ लगाए देखा तो गुस्से से उसका चेहरा लाल हो गया। वह बोली "तू अछूत! अरे जाट का छोरा तूने ब्राह्मण के घड़े को छू लिया। तुझे पता नहीं, यह घड़ा गंदा हो गया। इसके पैसे कौन देगा?" ब्राह्मणी ने कान पकड़कर कुंभा को घर से निकाल दिया। समाज में फैले ऊंच-नीच और छुआछूत के खिलाफ कुंभा का खून खौल उठा। सीने में आग लग गई। उसके भावों को कुचल डाला छुआछूत ने। पंडिताईन के बोल तीर की तरह कलेजे में चुभ गये। वह रोता रोता मां के पास गया और सारा वृत्तांत सुनाया। माँ से कारण पूछा। जीवनी इसका उत्तर नहीं दे सकी। वह तो जन्म से ही ऊंच-नीच की पीड़ा झेल रही थी। कुंभा के दिल में समाज के रूढ़िवादी विचारों के प्रति नफरत पैदा हो गई। विद्रोह की चिंगारी सुलगने लगी।
कुंभाराम आर्यसमाजी बने: कुछ ही समय बाद एक आर्यसमाजी भजनोपदेशक फेफाना गांव में आया। आर्य समाजी भजनोपदेशक ने आर्य समाज का महत्व समझाया। यह भी बताया कि आर्य समाज सभी सदस्यों को बराबर मानता है। ऊंच-नीच जाति-भेद के सख्त खिलाफ है।
फेफाना गांव की चौपाल पर भजनोपदेशक ने आर्य समाज की विचारधारा एवं शिक्षाओं पर प्रवचन दिये और भजन सुनाए। उपदेशक ने कर्मकाण्डों के क्रियाकलापों की जमकर खिंचाई की। उपदेशक की बातों का कुंभाराम के कोमल हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। कुंभाराम ने सभा में बैठे सैकड़ों नर-नारियों के सम्मुख खड़े होकर आर्यसमाजी बनने की घोषणा कर दी। उपदेशक से जनेऊ ग्रहण कर कुंभाराम ने अपने नाम के आगे 'आर्य' शब्द लगाने का निश्चय कर लिया। बालपन में कुंभाराम का यह बहुत बड़ा फैसला था।
हरिजन बालक को स्कूल में प्रवेश दिलाया: कुंभाराम ने देखा कि बलाई जाति का एक भी लड़का स्कूल नहीं जाता था। इस जाति के साथ होने वाले घोर अन्याय का कुंभाराम ने डटकर मुकाबला करने का निश्चय किया। कुंभाराम के घर के पड़ोस में ही एक बलाई का घर था। उसने अपने बलाई दोस्त को स्कूल जाने के लिए तैयार कर लिया। आर्य समाजी बनने के पश्चात कुंभाराम का अंधविश्वासी व कर्मकांडी समाज के खिलाफ यह पहला कदम था। चमार बालक को स्कूल जाते देखकर गांव वालों व बच्चों में हड़कंप मच गया। उस काल में चमार को अछूत माना जाता था। चमार की छाया पढ़ना भी अशुभ माना जाता था। चमार ही नहीं जाट, गुर्जर, यादव, कुम्हार, माली, रैगर, नाई, नाईक, बंजारे, धोबी, मीणा इत्यादि जातियों को भी अछूत वर्ग में गिना जाता था। खैर, चमार बालक के स्कूल में प्रवेश पर अध्यापक ने साफ मना कर दिया।
बालक कुंभाराम को अध्यापक ने धमकाया कि स्कूल के ताले लगा दिए जाएंगे। गांव वालों ने भी उसको फटकारा, लेकिन आर्य समाज की नीतियों को जीवन में उतार चुके कुंभाराम पर लोगों की धमकियों से उसके कानों पर जूं भी नहीं रेंगी। धीरे-धीरे गांव वालों ने भी कुंभाराम की बातों को मान लिया। चमार बालक को भी पढ़ने की अनुमति तो मिल गई, पर सवर्णों से दूर बैठकर। हरिजन बालक को प्रवेश मिलने पर कुंभाराम को बड़ा बल मिला। वह छोटी सी उम्र में ही एक साहसी व निडर विद्यार्थी बन गया था।
पढ़ाई के साथ-साथ खेती भी: कुंभाराम उम्र में छोटा होने के बावजूद खेती का सारा काम करने लगा। बरसात होने पर खेत, हल, व हाली की पूजा की जाती। कुंभा की मां अपने पुत्र कुंभा के हाथ के राखी बांधती, हल व बैल के भी राखी बांधती। कुंभा हर बार किसान देवता तेजाजी की पूजा करके ही हल जोतता था। हल जोतते वक्त तेजाजी के गीत पूरी तन्मयता से गाता था, जो कोसों दूर तक सुनाई देते थे। हाथ की राखी तब तक रखी जाती जब बाजरे के सिट्टा निकल गया हो। खेत में खड़ी फसल में पहला सिट्टा निकलने पर कुंभा राखी उसी के बांधता था। हल जोतने के अलावा सूड़ काटना, निनाण करना, लावणी करना, कड़वी काटना, खलियान का काम करना, पाला काटना इत्यादि काम बड़े जतन से करता था। कुंभाराम की बहन महकां भी काम तज्बीज के साथ करती थी। कई बार पड़ोसियों के बड़सी चढ़ाने भी कुंभाराम जाता तो कभी दो-चार पैसे मजदूरी भी कर लेता। कुंभाराम अपने पिता की कही बात को हमेशा याद रखता कि खेती धणी सेती होती है। वह खेती का काम चतुराई व होशियारी से करता और उतनी ही होशियारी से पढ़ाई करता था।
पढ़ाई छोड़नी पड़ी: कुंभा प्रथम कक्षा से ही स्कूल में अब्बल रहता था। वह कक्षा 5 की बोर्ड परीक्षा में बीकानेर स्टेट में प्रथम स्थान पर रहा था। बचपन में ही इनके पिताजी का देहांत हो गया था। राज्य सरकार ने कुंभाराम की आगे की पढ़ाई के लिए ₹2 प्रतिमाह वजीफे के तौर पर देना स्वीकार किया। फेफाना गाँव में केवल प्राथमिक विद्यालय ही था। उच्च प्राथमिक विद्यालय नहीं होने के कारण आगे की पढ़ाई के लिए बाहर जाना पड़ता। कुंभाराम के घर की आर्थिक स्थिति कमजोर थी। वह सरकार के मात्र 2 रुपये के वजीफे से बाहर नहीं पढ़ सकता था। पढ़ाई में होशियार था, पर गरीबी ने पढ़ने से साफ मना कर दिया। कुंभाराम की माँ के पास आय का अन्य कोई साधन नहीं था जिससे बच्चे को दूसरी जगह किराए के मकान में रख सके, फीस दे सके, खाने-पीने का व पढ़ाई का खर्चा वहन कर सके। अपने पूत को नौकरी लगाने का मानस था, पर सपना तो सपना बनकर ही रह गया जीवनी का। बालक कुंभाराम को अनचाहे बीच में ही पाँचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
ऊपर कुंभाराम जी के केवल बचपन का उल्लेख किया है श्री आर्य के किसानों और ग्रामीणों के लिए किए गए कार्यों को देखते हुये मेरे द्वारा उन के बारे में एक विस्तृत सचित्र लेख तैयार किया गया है जो उनके 10 मई को जन्म दिवस के अवसर पर समर्पित है। कुंभाराम जी के बारे में सब कुछ जानने के लिए पढ़ें ।।
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