Wednesday, July 18, 2018

जाट कौम .......... सावधान !!

जो इस पोस्ट को पुरा पढकर गहन विचार वयक्त नही कर सकता उस जाट और उस जाटनी का इस व्हाटसएप्प और फेसबुक जैसै सोसियल मिडिया प्लेटफार्म पर रहकर समय बर्बाद करना कोई मतलब नही रखता !!
जो लोग अपनी कौम के और अपने बच्चो के भविष्य के प्रति सजग और सचेत नही रहते वो लोग अपने जीवन में कुछ नही कर सकते! और उनके बच्चो का भविष्य अंधकार मय हो जायेगा !
एक दिन ऐसा समय आयेगा की उनके बच्चो की आने वाली पीढ़ीयाँ सड़को पर कटोरा लेकर भीख मांगेगी                                                     आपको यह पोस्ट बुरी लग सकती है पर 100% से भी ज्यादा सत्य और हाल के मुद्दो पर बनाई गयी पोस्ट है। इतनी मेहनत से आपके लिये किसी ने लिखा है तो प्लीज 10 मिनट समय निकाल कर पोस्ट को पढ़े और घर परिवार में अपने बीवी बच्चो को भी पढ़ाये और सुनाएँ !! मैं आपकी और आपके द्वारा इस पोस्ट को आगे फैलाने पर मिली प्रतिक्रिया जानना चाहुंगा         
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       🙏🙏🙏सांभार : Ancient Jat's History.The Great Indo European Getae.The Aryan
जाट कौम .......... सावधान !!
किसी भी कौम में समयानुसार परिवर्तन आवश्यक है। कुछ समय से जाट कौम में भी गहन परिवर्तन आये हैं। लेकिन अधिकतर परिवर्तन नकारात्मक हैं। जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण जाटों की नई पीढ़ी अपनी कौम की परम्पराओं व संस्कृति से बड़ी तेजी से कटती जा रही है, जिसका कोई उपाय आवश्यक है। यह प्रवृत्ति कौम के लिए एक बड़ी चिन्ता का विषय हैं। इस बारे में हमें अपनी संतानों को शिक्षा देने के लिए एक ‘जाट आचार संहिता’ का निर्माण करना ही होगा। यदि समय के साथ-साथ इसके उपाय नहीं किये गये कि ऐसा न हो कि जाट कौम लुप्त होने की राह पर चल पड़े? यह बात सुनने में अवश्य अटपटी लगती है कि कोई जाति कैसे लुप्त हो सकती है। लेकिन इतिहास भूतकाल का दर्पण तथा भविष्य का रहबर (Guide) होता है। इतिहास गवाह है कि कई नई जातियाँ बनती रहीं और कुछ विलुप्त होती रही हैं। किसी भी जाति के बनने व लुप्त होने में सदियाँ लगती हैं। जाट एक Global Race रही है। जाट पहले सतानती से बौद्ध बने, फिर हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई और सिक्ख बनते रहे हैं। शेष आज का हिन्दू जाट समाज बुरी तरह से ब्राह्मणवाद के चक्रव्यूह तथा लुटेरी संस्कृति के मायाजाल में फंसता जा रहा है। यही संस्कृति हिन्दू जाट जाति को शनैः-शनैः लील रही है अर्थात् अपने में समा रही है। लेकिन इस प्रक्रिया को हम आमतौर पर महसूस नहीं कर पा रहे हैं।
हम केवल 1947 के बाद का परिवर्तन देखें तो हम स्पष्ट देखते हैं कि हमारी दिशा किस ओर है। हमसे तो पाकिस्तान के मुस्लिम जाट बेहतर स्थिति में हैं। जबकि पाकिस्तान की जनसंख्या 16 करोड़ 25 लाख है। हम से तो पंजाब के 81 लाख सिक्ख जाट भी अच्छी हालत में हैं। अभी कुछ लोग कहेंगे कि वे अधिक शिक्षित हैं तो मेरा पूछना है कि कुंवर नटवरसिंह से कौन हिन्दू जाट राजनीति में अधिक शिक्षित है? उनका आज क्या हो रहा है? उन्होंने तो किसी जाट को तेल की पर्चियाँ नहीं दिलवाई, पर्ची लेने वाले तो सहगल और खन्ना, हिन्दू-पंजाबी खत्री थे। यही विपिन खन्ना जी अभी सेना के लिए हथियार खरीदने के मामले में भी फंस चुके हैं। लेकिन उसी वर्ग के लोगों ने जो विपक्ष में बैठे थे पहले इन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया, फिर उसी वर्ग के सत्तापक्ष के लोगों ने कांग्रेस से निष्कासित करवाया। इसी कांग्रेस की कुंवर नटवरसिंह 45 वर्षों से सेवा करते आ रहे थे और आज उन्हें दूध में गिरी मक्खी की तरह निकालकर फैंक दिया गया। फिर उन्हें जाट जाति याद आई तो उनके कहने पर दो लाख जाट 23 अगस्त 2006 को जयपुर में इकट्ठे हो गये। लेकिन तेल की पर्चियाँ लेने वाले वर्ग से कोई भी व्यक्ति वहाँ उपस्थित नहीं था। अभी अगस्त 2007 में चौ० नटवरसिंह के सुपुत्र जगतसिंह ने इसी अंदलीव सहगल की बहन से प्रेम विवाह किया है। इस बारे में मैं तो यही कहना चाहूंगा “हम तो लुट गये तेरे प्यार में.......”।
जब से दिल्ली केन्द्र शासित व एक राज्य रहा है अर्थात् आजादी के बाद से पहली बार दिसम्बर 2008 में बनी सरकार में श्रीमती शीला दीक्षित के मन्त्रिमण्डल में कोई भी जाट मन्त्री नहीं है। उत्तर भारत में जाटों से बड़ी कोई जाति नहीं है और आज इस कौम का दिल्ली की राज्य सरकार में कोई हिस्सा नहीं, जबकि दिल्ली राज्य में ही नहीं, दिल्ली की केन्द्र सरकार में भी जाटों का एक बहुत बड़ा हिस्सा होना चाहिए। लेकिन जाटों का दुर्भाग्य है कि आज सम्पूर्ण दिल्ली में इन बाहरी लोगों का आधिपत्य है।
वही डी.एल.एफ. जो कभी जमना भक्त के वंशज तथा चौ० छोटूराम के दायाँ हाथ चौ० लालचन्द के बेटे चौधरी राघवेन्द्र ने स्थापित की, इसका मालिक शायद 20 साल के बाद कोई भी जाट खून से हो?
अभी कुछ दिन पहले एक एम.एल.ए. के दावेदार नेता एक जाट मीटिंग में भाषण कर रहे थे कि जाटों को फौज में भर्ती नहीं होना चाहिये और सभी को आई.ए.एस. तथा आई.पी.एस. बनना चाहिये। बात बिल्कुल अच्छी है, प्रयास होना चाहिए, यही लोग तो देश की नीति निर्धारित करते है। नेता जी ने अच्छा महसूस किया कि देश की वास्तविक सत्ता इन्हीं अधिकारियों के कब्जे में होती है। क्योंकि नेता जी को लोगों के कार्यों के लिए इन्हीं से जूझना पड़ता है। इसलिए उनको यह बात याद आई, लेकिन क्या सभी जाटों के लिए आई.ए.एस. तथा आई.पी.एस. बनना संभव है? हर साल पूरे देश के लिए इस सेवा में कितने पद सृजन होते हैं? क्या नेता जी ने इसका भी कभी अहसास किया है? जो पहले जाट जाति के आई.ए.एस. तथा आई.पी.एस. बने उनमें से कितनों को इस जाति की चिंता है? मैंने इसी साल 117 हिन्दू जाट आई.ए.एस.(अलाईड आई.ए.एस.) व आई.पी.एस अधिकारियों के नाम इकट्ठे किए तो पाया कि 60 प्रतिशत ने अन्तर्जातीय विवाह किए हैं अर्थात् जहां 117 जाट परिवारों का सुधार और फायदा होना था वह पूरा नहीं हो पाया।
यह एक जाट इतिहास की अज्ञानता के कारण हो रहा है। ऐसा नहीं कि जाटों की लड़कियां पढ़ी-लिखी नहीं हैं। बल्कि कहें कि इसी कारण जाटों की पढ़ी-लिखी लड़कियों को योग्य वर नहीं मिल रहे हैं। जब जाति की ही चिंता नहीं तो हमारी तरफ से चाहे कोई कुछ भी बने। लगता है नेता जी ने इन बातों पर कभी गौर नहीं किया। नेता जी ‘समाज सेवा’ का दावा तो करते हैं लेकिन क्या उन्होंने इसकी परिभाषा का कभी ख्याल किया कि समाज सेवा क्या होती है? ऐसी समाजसेवा को प्राचीन में बार्टर पद्धति कहा जाता था जिसे आज हम अंग्रेजी में Bargaining कह सकते हैं। यह ढोंगी ‘समाजसेवा’ है।
समाजसेवा तो वह होती है जिसके बदले में स्वर्ग की भी कामना न की जाए। जबकि यहां तो समाज सेवा के बदले लोग वोट मांग रहे हैं। 90 प्रतिशत से अधिक जाट आज भी गाँवों में रहते हैं। पूरे उत्तर भारत की सरकारी सर्वे रिपोर्ट कह रही है कि “Education in North India is in Shambles” अर्थात् उत्तर भारत में शिक्षा का कबाड़ा हो रहा है। यह कबाड़ा क्यों हो रहा है इसका उल्लेख मैंने ऊपर चौ० छोटूराम की शिक्षाओं .......... के लेख के प्रथम पैरा में किया है। इसलिए जाटों को शिक्षा के साथ-साथ जाट जागृति की भी कड़ी आवश्यकता है, यदि जाट शिक्षित होकर भी अपने को जाट नहीं समझेगा तो वह शिक्षा जाटों के लिए हितकारी नहीं, अहितकारी होगी और ऐसा हो रहा है।
क्योंकि जाट जाति स्वभाव से भावुक और राष्ट्रवादी रही है, इसलिए उसने हमेशा सरकारी अभियानों को सच्चा अंजाम दिया। कोई जाति पाति नहीं है - यह प्रचार उच्चवर्ग की जातियां कर रही हैं जिनमें उनका स्वार्थ जुड़ा है। ताकि वे लोग उच्च पदों पर रहें और मलाई भी खाते रहें। इसी कारण योग्यता के बहाने पूरा कब्जा किए बैठे हैं। क्योंकि कमीशन (यू.पी.एस.सी. आदि) पर इन्हीं के लोग विराजमान हैं। इस सच्चाई को आपने ऊपर पढ़ लिया है। जब सरकार ने नारा दिया कि कोई जाति-पाति नहीं तब भी जाट इस नारे से प्रभावित हुआ। लेकिन असलियत से परिचित नहीं कि इस देश का संविधान और समाज क्या मांग कर रहा है। यदि जाटों ने फौज में भर्ती होना ही बन्द कर दिया तो समय आते उनकी मारसिल्टी ही खत्म हो जायेगी जो उसकी रीढ़ है और हिन्दू जाट जाति के लुप्त होने में सहायक सिद्ध होगी। इसमें कोई दूसरी राय नहीं हो सकती कि शिक्षा तो आज सबसे महत्त्वपूर्ण है लेकिन हमारी 90 प्रतिशत जाट जाति जो गांवों में रहती है, उसका पैसा स्तर की शिक्षा पर खर्च न होकर काज (मृत्युभोज, हरिद्वार आदि ) व मुकदमों में जा रहा है अर्थात् जिस पैसे से हमारे बच्चे पढ़ने थे उससे दूसरों के बच्चे पढ़ते हैं। इसलिए सरकार की नीति और हमारी सामाजिक नीति दोनों ही इस महान् जाति के विनाश पर तुली हैं।
जाट जाति समानता के अधार पर खड़ी रही है, चाहे जाट के पास एक बीघा जमीन थी या 100 बीघा, उसका स्वाभिमान बराबर का रहा है। लेकिन आज जाटों में भी आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ रही है इसलिए जाट समाज दो भागों में बंट रहा है। सरकार की उदार आर्थिक नीति का लाभ केवल शहरों में बसने वाले कुछ जाट ही उठा रहे हैं न की गाँव वाले। जबकि गाँव में रहने वाले लगभग 90 प्रतिशत जाट इस नीति के शिकार होकर आत्महत्या तक करने के लिए मजबूर हैं। इसी असमानता के कारण जाटों में आपसी जलन की प्रवृत्ति बढ़ रही है तथा आज जाटों के स्वाभिमान का स्थान अहंकार ने ले लिया है। शहरी जाट स्वयं अपनी जाट जाति के लोग जो गाँव में रहते हैं, उनके विरोध में स्वयं प्रचार करते रहते हैं कि ‘गाँव वाले तो किसी की उन्नति देखना ही नहीं चाहते’ । जबकि वे असलियत जानने के इच्छुक नहीं हैं। आज जो जाट शहरों में चले गये, वही जाट अधिक सम्पन्न और शिक्षित हैं, लेकिन क्या वास्तव में इसी जाट वर्ग ने कभी अपने गाँव वाले जाटों के लिए कुछ किया या सोचा है? क्या अपने भाइयों को गाँव की भीड़ से निकालने के लिए कोई प्रोत्साहन, प्रयास या सहयोग किया है?
एक बिहारी एक बार बिहार जाता है तो दस बिहारी अपने साथ लेकर आता है। एक हिन्दू-पंजाबी शरणार्थी कहीं बाजार में दुकान खोलता है तो दस और हिन्दू-पंजाबियों की दुकान खुलवाने का प्रयास करता है। लेकिन क्या जाट ऐसा कोई प्रयास करते हैं? आज गाँव का जाट तो अपनी किस्मत और केन्द्रीय सरकारों की करनी अर्थात् नीतियों को रो रहा है।
इसी प्रकार शनैः-शनैः लोग गाँव छोड़कर शहरों में बस्ते जाएंगे और इन शहरी जाटों को ब्राह्मणवाद व लुटेरी संस्कृति लीलती रहेगी। जिससे जाटों को अपने को जाट कहने में कोई दिलचस्पी नहीं रहेगी। दूसरी ओर गाँव में केवल निर्धन अशिक्षित और पिछड़े जाट रह जायेंगे, जिनमें हीन भावना का उदय होगा और वे अपने को जाट कहलाने में ही एक दिन शर्म महसूस करने लगेंगे। भ्रूणहत्या के कारण गाँव वाले लड़कियों को मारकर अपना वंश चलाने के लिए देश के पूर्वी क्षेत्र जैसे कि आसाम व त्रिपुरा आदि से दुलहन खरीदकर लाते रहेंगे जो उनके जाट जीन्स (खून) को समाप्त करने में सहायक सिद्ध होगी। इससे भी अधिक संकट होगा कि हमारे बच्चों के मामे नहीं होंगे, भाती नहीं होंगे। जब कौम के रिश्तेदार ही नहीं रहेंगे तो फिर कौम कहां रहेगी? यह तो वही हो जाएगा जब किसी गाड़ी का पंजीकृत नं०, इंजन नं० और चैसिस नं० न हो तो उसे जुगाड़ कहा जाता है। इसी प्रकार जाट कौम भी जुगाड़ बनकर रह जाएगी।
हरयाणा में जाटों के बहुत कम गांव बचे हैं जहां खरीदी हुई औरतें न आ गई हों। जाटों को चाहे आज अपने अनाज के भाव मालूम न हो लेकिन औरतों के भाव अवश्य मालूम रहते हैं और अभी जाट इसके लिए त्रिपुरा तक पहुंच गए हैं, जहां आज औरतों के कम रेट चल रहे हैं। जहां से बंगलादेशी लड़कियां आ रही हैं जिनका न कोई गोत-नात, जात-पात व धर्म-कर्म ज्ञात नहीं फिर उनसे कौन से जाट पैदा होंगे? इसलिए हमें भ्रूण हत्या बंद करनी होगी और अभी कुछ दिन के लिए जाटों को जनसंख्या बढ़ने की चिंता को छोड़ना होगा।
दूसरा, जाटों को आरक्षण लेना ही होगा ताकि हमारे बच्चों को रोजगार मिल सके जिस कारण हमारा सामाजिक संतुलन बन सके। इसके अतिरिक्त हमें मूले जाटों के साथ रोटी-बेटी के रिश्ते कायम करने होंगे। इन जाटों के साथ हमारा पुराना खूनी रिश्ता है और खून का रिश्ता दुनिया में सबसे बड़ा माना गया है। त्रिपुरा व बंगलादेशियों से हमारा कोई रिश्ता नहीं है। एक पौराणिक कहावत है कि ‘जाट का क्या हिन्दू और मेव का क्या मुसलमान।’ इसके अतिरिक्त ब्राह्मणवाद व पाखण्डवाद से पीछा छुड़ाये बगैर जाट कौम कभी भी अपने मकसद तक नहीं पहुंच सकती। क्योंकि हम हिन्दू रहकर कभी शिखर पर नहीं पहुंच सकते और यह हमने चौ० चरणसिंह के समय देख लिया है। इसलिए मैं बहुत सोच विचार कर और विश्वास के साथ लिखना चाहता हूं कि जाट कौम ब्राह्मणवाद (पाखण्डवाद) से अपना पीछा छुड़ाये और बगैर किसी हिचक के सिख धर्म ग्रहण करे। मैं इस बारे में जाटों की प्रतिक्रिया जानने का इच्छुक हूं।
वहीं दूसरी ओर जाटों की लड़कियां लड़कों की अपेक्षा अधिक पढ़ती जायेंगी क्योंकि वे स्वभाव से मेहनती और वफादार हैं। फिर उनकी शादी के लिए विज्ञापन छपवायेंगे “Caste no bar” अर्थात् जाति से कोई लेना-देना नहीं। यह सब पूरी प्रक्रिया जाट जाति को लुप्त होने में सहायक सिद्ध होगी और यदि ऐसा ही चलता रहा तो इसमें ज्यादा से ज्यादा 150 वर्ष से 200 वर्ष तक का समय लग सकता है।
*यह एक सच्चाई है कि जो लोग सम्पन्न होते हैं वे लोग अधिक डरपोक होते हैं क्योंकि उन्होंने जो पा लिया है उसे खोने का सदैव डर रहता है तथा अधिक पाने की चिंता रहती है। इसलिए संसार का इतिहास गवाह है कि ऐसे लोगों ने कभी कोई बड़ा परिवर्तन नहीं किया। आज तक संसार में जो भी क्रांति या बड़े परिवर्तन हुए, उनकी शुरूआत गरीबों के गाँव से हुई। उदाहरण के लिए भारतवर्ष में आज का ‘नक्शलवाद’। ‘नक्शलवाद’ का जन्म पश्चिम बंगाल के जिला जलपाईगुड्डी के छोटे से गाँव नक्शलबाड़ी में सन् 1967 में हुआ था। इसलिए जो भी परिवर्तन भविष्य में होने हैं उनकी शुरूआत गाँव से ही होनी है और ये परिवर्तन वृद्ध लोग नहीं कर सकते हैं। वृद्ध लोग केवल विचाराधारा को जन्म दे सकते हैं। यह तो युवावर्ग ही कर पायेगा और इसका एकमात्र उपाय ‘क्रान्ति’ है। क्रान्ति का अर्थ देशद्रोह नहीं है, क्रांन्ति का अर्थ है प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा।
वर्तमान व्यवस्था का परिवर्तन, लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत स्थिति के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार-मात्र से ही काँप उठते हैं। यही वह जड़ता की भावना है, जिसके स्थान पर क्रान्तिकारी भावना जागृत करने की आवश्यकता है। आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदा बदलती रहे और नई व्यवस्था उसका स्थान लेती रहे।
*इस लेख में मैं प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से ऐसा कुछ कहना चाहुंगा। मैं भी आपकी तरह एक साधारण जाट हूँ, मैं कोई इतिहासकार व साहित्यकार नहीं हूँ। लेकिन मैंने अपनी जाति के लिए इतिहास पर कुछ चिंतन किया है, इसलिए मैं अपने चिंतन को असाधारण मानता हूँ और इसी बल पर अपनी बात को डंके की चोट पर सिद्ध करने का दावा करता हूँ। मेरी बात को मेरे कितने जाट भाई समझ पायेंगे यह मैं नहीं कह सकता, लेकिन कोई एक भी समझ गया तो मैं स्वयं को सफल समझूंगा।
इस बारे में मैं कुछ उदाहरण पेश कर रहा हूँ -मेरे एक जाट मित्र अधिकारी के पुत्र ने ब्राह्मण जाति में शादी की थी। वह अपने पौत्र को एक दिन अपने साथ लाया और मुझे कहने लगा कि यह बच्चा बहुत ही होशियार है। मैंने पूछा “हम किस वर्ण में आते हैं तथा हमारा धर्म क्या है और हम अपने धर्म के बारे में कितना जानते हैं” उन्होंने उत्तर दिया “जाट क्षत्रिय हैं और मैं पक्का हिन्दू हूँ तथा प्रातः रोजाना गीता का पाठ करता हूँ।”, तो मैंने कहा - फिर तो आपका पौत्र सूत जाति का हुआ क्योंकि हिन्दू धर्म की मनुस्मृति में जातियों के अनुलामे व प्रतिलामे के अध्याय में स्पष्ट लिखा है कि “क्षत्रिय से ब्राह्मण कन्या में उत्पन्न जाति (वर्ण) सूत कहलाती है” इस पर मित्र मुझे घूरकर देखने लगा तो मैंने कहा “इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं, आपका पौत्र तो अवश्य होशियार होगा क्योंकि यह हाईब्रीड है (शंकर वर्ण) जैसे हाईब्रीड बाजरा व गेहूँ एक एकड़ में 40 मन से 80 मन तक हो जाता है, लेकिन याद रहे इनमें देशी बाजरे व गेहूँ की तरह कभी मिठास व लोच नहीं होगा। बस यही भारी अन्तर है। पाठक कृपया इसका अर्थ स्वयं निकाले!!
मैं इस बात को साफ करने के लिए एक उदाहरण दे रहा हूँ, जिससे प्यार और वासना की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। एक बड़े हिन्दू ब्राह्मण बाप की बेटी थी। वह एक दिन अपने पिता से कह उठी कि उसे एक पारसी लड़के से प्यार हो गया है। परिवार की प्रतिष्ठा का सवाल था इसलिए पिता ने इंकार कर दिया। लेकिन लड़की जिद्द पर अड़ गई तो पिता को एक दिन झुकना पड़ा। बेटी पिता का घर छोड़कर अपने प्रेमी के घर पत्नी बनकर चली गई। वहां दो बच्चे होते-होते वह प्यार छू-मन्तर हो गया। एक दिन वही लड़की अपने पति से जिद्द करने लगी कि वह तो अपने पिता जी के पास रहेगी। वह नहीं मानी और एक दिन पति को छोड़ फिर अपने पिता के घर लौट आई! इससे स्पष्ट है कि इस लड़की की यह वासना थी जो दो बच्चे होते होते यही वासना लगभग समाप्त हो गई और पिता के प्यार को जिस वासना ने पीछे छोड़ दिया था, फिर से लड़की को वह पिता का प्यार सताने लगा और वह उस पति के प्यार (वासना) को भूल गई। इससे स्पष्ट है कि लड़की का अपने पति से प्यार नहीं था वह वासना थी, जिसकी समय सीमा थी, जो समाप्त हो गई। लड़की को सच्चा प्यार अपने पिता से था, पति से नहीं। यही प्यार और वासना का भेद है! आज हमारे चारों तरफ इस प्यार रूपी वासना का ही तांडव चल रहा है और यह भी एक हकीकत है कि अभी सरकार ने इसके लिए घूस देनी भी शुरू कर दी है। आज स्कूल में जाने वाली गाँवों की जाटों की लड़कियां भी इस प्यार के नाम पर भागने लगी हैं। (पिछले साल मेरी ससुराल के गाँव से स्कूल में जाने वाली जाटों की दो लड़कियां भाग गईं और एक सप्ताह के बाद बरामद हुई)। कहने का अर्थ है कि यह जाटों के लिए समस्या ही नहीं अपितु एक चुनौती बनती जा रही है। आज यह पनघट व बिटोड़ों तक की बात नहीं रही बल्कि गाँव चौपाल की समस्या बन चुकी है। क्योंकि हुक्का संस्कृति का गाँव से डेरा उठ चुका है जो खानदानी परम्पराओं की रक्षक थी। अभी कोई कहेगा कि जाटों की ही अकेली लड़कियां नहीं भाग रही हैं, दूसरी जातियों की लड़कियां भी भाग रही हैं, तो मेरा कहना है कि बाकी जातियों के हम ठेकेदार नहीं, हम अपना घर संभालें। इसमें जाटों को ज्यादा खतरा है क्योंकि जाट जाति स्वभाव से अधिक भावुक है। क्योंकि जब सरकार ने यह अभियान चलाया कि देश में कोई जाति-पाती नहीं, इसका असर भावुकता के कारण जाटों के बच्चों पर अधिक पड़ा। जबकि भारत के संविधान से लेकर आपकी नौकरी के लिए फार्म भरने तक सभी जगह जातियों का प्रावधान है। इसलिए इस समस्या की मार जाट जाति पर अधिक पड़ने वाली है जो जाट जाति को लुप्त होने की राह पर ले जायेगी। कहीं ऐसा ना हो कि हमें अपनी बेटियों के लिए दहेज से पहले उनके लिए छुछक का बन्दोबस्त करना पड़े।
इस वासना की वकालत करने वाले जाटों से मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या हम और हमारे पूर्वज बगैर प्यार के ही पैदा हो गये थे?
अब ये कहेंगे कि समय बदल रहा है तो मैं पूछता हूँ कि क्या हम समय को अपने नाते बदलने की आज्ञा दे देंगे और फिर एक दिन अमेरिकन की तरह सात दिन के लिए शादियाँ करने लगेंगे? जहाँ 34 प्रतिशत लड़कियां बच्चे नहीं चाहती और 4 प्रतिशत विवाह करना ही नहीं चाहती। यदि हम समय रहते इन समस्याओं पर ध्यान नहीं देंगे तो एक दिन हम अपना मन मसोसकर रह जायेंगे या फिर देशभक्ति के भाषण झाड़ते फिरेंगे (ऐसा अभी कुछ जाटों के साथ हो भी रहा है)।
अभी हरयाणा में तो एक जाट राजनीतिज्ञ परिवार इस समस्या से जूझ रहा है क्योंकि उसके सभी बच्चे जाट जाति से भगोड़े हो चुके हैं, जाट बेचारे इनके लिए अपने स्वार्थ में नारे लगाते तथा पंचायतें करते फिर रहे हैं। ऐसे ही लोग जाति को लुप्त होने की ओर ले जा रहे हैं और बाकी जाट उनका अनुसरण कर रहे हैं।
अभी कुछ शिक्षित जाट भी सगोत्र विवाह की वकालत कर रहे हैं, जबकि यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है कि सगोत्र विवाह बेहद खतरनाक हैं। इनसे किन्नर (हिजड़े) पैदा होंगे जबकि जाटों में किन्नर जन्म का रिकॉर्ड ही नही है सबसे ज्यादा किन्नर मुस्लिम व ब्राह्मण समाज में जन्म लेते है।
जंगली जानवरों में भी यह देखा गया है कि जो एक ही समूह में रहकर प्रजनन करते हैं उनके अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो गया है।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है पारसी धर्म समाज है। जिनकी जनसंख्या सन 1991 में लगभग 72 हजार थी जो सन् 2001 में घटकर लगभग 69 हजार रह गई। क्योंकि इनमें गोत्र प्रथा नहीं है। अभी इसी समाज को बचाने के लिए उपाय ढूंढे जा रहे हैं। यह बहुत ही आश्चर्यजनक बात है कि लोग अपनी ही बहन से विवाह करने वालों को कैसे प्रेमीयुगल कहते हैं? क्योंकि जाट समाज व अन्य कुछ सजातियां सगोत्री को भाई-बहन मानते हैं। हमें हर हालत में ‘हिन्दू कोड’ में कानूनी तौर पर सगोत्री विवाह को गैर कानूनी करवाना पड़ेगा, जिसमें आज तक गोत्र का प्रावधान नहीं है। आमतौर पर हिन्दू लोग मुस्लिम धर्म के विवाह कानून पर उंगली उठाते हैं लेकिन जब सन् 1955 में बना ‘हिन्दू विवाह कानून’ किसी भी प्रकार से हिन्दुवादी नहीं कहा जा सकता और यह कोड एकदम जाट विरोधी है। क्योंकि सम्पूर्ण जाट समाज गोत्र परम्परा पर टिका है वरना यह छिन्न-भिन्न हो जाएगा। जबकि यह ‘हिन्दू विवाह कानून’ बहिन-भाई अर्थात् समगोत्र विवाह को वैध मानता है जबकि जाट समाज समगोत्र लड़के-लड़की को भाई-बहन का दर्जा देता है। इसलिए हिन्दू कोड जाट समाज के लिए अधर्मी है। इसके लिए 21वीं सदी तथा आधुनिकता का कोई भी बहाना नहीं हो सकता।
21 जून 2008 को हाईकोर्ट दिल्ली ने इसी कोड के अनुसार एक फैसले में समगोत्र विवाह को जायज ठहरा दिया। वास्तव में ‘हिन्दू विवाह कानून’ को दक्षिण भारत के ब्राह्मण अधिकारियों ने ड्राफ्ट किया था जिनके यहां सगी बहन, बुआ और मामा की लड़कियों से विवाह करना सबसे पवित्र रिश्ता माना जाता है। ऐसी ही कुप्रथा पाकिस्तान से आए शरणार्थी हिन्दू पंजाबियों में है। जो भी हो, जाट समाज ने अपने समाज को कायम रखना है तो इस कोड का विरोध करना ही होगा। जिसके लिए जाट सभाओं व खापों को आगे आना होगा।देखा गया है कि ऐसे ही लोग खापों को समाप्त करने के पीछे लगे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि इस समाज की रीढ़ खाप और गोत्र प्रथा है और उनकी रीढ़ ही टूट जायेगी तो समाज अपने आप ही बिखरकर खत्म हो जायेगा। यदि हमने ऐसा प्रयास नहीं किया तो बबली-मनोज जैसी कीमती जानें जाती रहेंगी और तीसरी अदालत कार्य करती रहेगी, जो हमारे समाज के लिए बहुत घातक है।
यह कभी नहीं हो सकता कि सांगवान के बेटे की शादी सांगवान की पुत्री से हो या ख़िलेरी की बेटी से ख़िलेरी के बेटे से हो। लेकिन किसी संजय कपूर की शादी किसी करिश्मा कपूर से हो सकती है? यह संस्कृति इन्हीं लोगों को मुबारक।
यह प्रमाणित तथ्य है कि यदि किसी कौम को लुप्त व बर्बाद करना हो तो उसके इतिहास को मिटा दो। पौराणिक ब्राह्मणवाद जाटों के इतिहास को(1925 से 2018 तक) ही विकृत कर चुका है और जो भी शेष है, उसके बारे में अधिकतर जाटों को कुछ भी ज्ञान नहीं है।
इसके लिए मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा। जब इस पुस्तिका का पहला संस्करण छपवाया तो मैंने एक हिन्दी विषय के जाट लेक्चरर को इसकी एक कापी पढ़ने को दी तो उसने मेरे सामने इसको अन्त से पढ़ना शुरू किया और वह पहली लाईन पर मुझसे पूछ बैठा कि “क्या राजा नाहरसिंह जाट थे”? इस बात से बड़ा आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज हमें अपने इतिहास का कितना ज्ञान है। आमतौर पर शिक्षित जाट अपने बच्चों को जाट शब्द तक नहीं बतलाना चाहते, इतिहास की बात तो छोड़ो। उनको पता नहीं कहाँ से यह बहम हो गया कि यदि बच्चों को अपनी जाति के बारे में बतलाया गया तो वे बिगड़ जाएंगे। बच्चों को केवल एक ही बात रटाई जाती है कि ‘पढ़ लो बेटे पढ़ लो’। बच्चे अपनी खानदानी परंपराएं भूल रहे हैं। इसी का परिणाम है कि आज नैतिकता अपने निम्न स्तर पर पहुंचती जा रही है और यही भूल जाट जाति को लुप्त होने की राह पर ले जा रही है।
वर्तमान में शराब ने जाटों पर कहर ढा दिया है। परिवार के परिवार तबाह हो रहे हैं। युवा वर्ग का एक भाग शराब की भेंट चढ़ रहा है। हर गांव में शराब के ठेके खुल गए हैं, जिन जाटों की जितनी कम कमाई है, उतनी ही अधिक उनमें शराब की खपत है, चाहे इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण ही क्यों न हो। इस बुराई पर नियन्त्रण करने के लिए जाट कौम को उपाय करने पड़ेंगे। सबसे बुरी बात तो यह है कि इस वर्ग को यह भी ज्ञान नहीं कि यदि शराब पीनी ही है तो कब, कैसे, कैसी और कितनी पीनी चाहिए?                                                                                                                                                                                             
अभी यह पढ़कर कोई कहेगा कि मेरी विचारधारा रूढीवादी है, आधुनिक नहीं। ऐसे लोगों से मेरा कहना है कि पहले वे अपनी विचारधारा को दुरुस्त कर लें क्योंकि वे बनावटी आधुनिकता में जी रहे हो आप!🙏                                    

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