Monday, July 30, 2018

दिल्ली जाटों की है.......

जी हाँ भारत की राजधानी और उसके आसपास का क्षेत्र जाटों है जरा गौर से पढ़िए... 
सबसे शक्तिशाली पहाड़ी की चोटी पर खड़े होने का 'फील गुड'. जी, रायसीना हिल्स जहां देश के कार्यपालक अध्यक्ष (राष्ट्रपति) निवास करते हैं.

क्या गजब की चीज बनाई लूट्यन्स साब ने. (यहां इनकी प्रतिमा अब तक सुरक्षित है, टूटी नहीं है. तस्वीर संलग्न). चार मंजिलें, 330 एकड़ का इलाका, 340 निहायत ही सुसज्जित कमरे, 74 बरामदे, 37 मीटिंग हॉल, करीब एक किलोमीटर का गलियारा, 18 सीढ़ी मार्ग, 37 फव्वारे आदि आदि.


इतिहास पढ़ने वाले सब जानते हैं कि 1911 में भारत में अंग्रेजी हुकूमत की राजधानी कलकत्ते से दिल्ली शिफ्ट हो गई. वर्तमान बुराड़ी के नजदीक किंग्सवे कैम्प में ब्रितानी सम्राट जॉर्ज पंचम की मौजूदगी में नई राजधानी की बुनियाद रखी गई. लेकिन अंग्रेज एक व्यस्थित और स्थाई जगह की फ़िराक़ में थे. इसी जद्दोजहद में लूट्यन्स और बेकर जैसे नामी वास्तुविदों को जिम्मेदारियां सौंपी गईं. लूट्यन्स 1912 में दिल्ली आए, यमुना का कैचमेंट एरिया (आवाह क्षेत्र) होने के कारण उन्होंने 'किंग्सवे कैम्प' इलाके को नई राजधानी के लिए खारिज कर दिया. फिर शुरू हुई नई राजधानी के लिए मुफीद जगह की तलाश, जिसमें सबसे अहम थे 'वायसराय हाउस' और 'केंद्रीय सचिवालय'. लूट्यन्स अगले एक महीने तक रोजाना घोड़े की पीठ पर सवार होकर मजनूं का टीला से लेकर बदरपुर, महरौली के बीच कोई माकूल जगह तलाशते रहे. आखिरकार उन्हें तत्कालीन रायसीना और मालचा गांवों वाली जगह पसंद आई. पसंद में शायद सबसे बड़ा फैक्टर इन गांवों की ऊंचाई पर अवस्थित होना था. यहां वायसराय हाउस और केंद्रीय सचिवालय खड़ा करने का निर्णय लिया और इनके आसपास 'नई दिल्ली'.

तय हुआ कि रायसीना और मालचा के साथ-साथ कुशक, पिलांजी, दासगढ़, तालकटोरा, मोतीबाग जैसे गांवों को नई राजधानी के लिए खाली कराया जाए. जिस इलाके में वायसराय हाउस, केंद्रीय सचिवालय (अब के नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक) और संसद भवन खड़े करने की योजना बनी उसका 60% हिस्सा रायसीना गांव में पड़ता था, बाकि का हिस्सा मालचा गांव में था. दोनों गांव 'जाट' नामक जाति के बाहुल्य वाले गांव थे. साथ ही अहीर, गुर्जर, ब्राह्मण, सैनी, नाई, कुम्हार, दलित, रांगड़ मुसलमान जैसी जातियां भी इन गांवों में निवास करती थीं. (तालकटोरा मुस्लिम बहुल गांव था).

अंग्रेजों ने हुक्म जारी किया कि भूमि अधिग्रहण से जुड़े  Land Acquisition Act, 1894 (अंग्रेज कानूनों के पक्के थे) के तहत 'घर' वाली जगह के लिए के 5 रूपये और कॄषि वाली जमीन के 3 रूपये प्रति बीघा के हिसाब से मुआवजा दिया जाए. (उस समय 'आने' और 'पाई' का हिसाब-किताब होता था). कुछ लोगों ने अंग्रेजों का मुआवजा स्वीकार किया लेकिन अधिसंख्यक मालचा और रायसीना वासियों ने अंग्रेजों के इस ऑफर को ठुकरा दिया. अड़ियल गांव वालों का मानना था कि अंग्रेजों के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट के खातिर भला हम अपना 'गांव' क्यों छोड़ें? विरोध के स्वर बढ़ते देख अंग्रेजों ने रातों-रातों तोपें तैनात कर दीं. स्थानीय लोगों ने पैसों को ठुकरा अपने गांव छोड़ना तय किया (साफ है उस दौर में पैसों से ज्यादा बड़ा स्वाभिमान हुआ करता था). देखते ही देखते इन गांवों के 300 परिवार करीब 4 हजार एकड़ जमीन अंग्रेजों के हवाले कर चलते बने. बताते हैं कि ज्यादातर रायसीना वाले वर्तमान हरियाणा में पलवल के पास पिगनोर चले गए और मालचा वाले सोनीपत जिले के हरसाणा गांव में. हरसाणा में विस्थापित हुए लोगों ने अपने पुश्तैनी गांव की याद को जिंदा रखने के लिए 'मालचा' शब्द भी जोड़ दिया. ऐसे में अब यह गांव 'हरसाणा मालचा' कहलाता है. इसी गांव के 'सज्जन' नाम के एक शख्स ने 'Land Acquisition, Rehabilitation and Resettlement Act, 2013' का हवाला देकर दिल्ली हाइकोर्ट में केस ठोक रखा है. इनकी दलील है कि "जब हमारे पूर्वजों ने मुआवजा लिया ही नहीं, तो हमें यह जमीन वापस की जाए." मतलब कि राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, नॉर्थ-साउथ ब्लॉक सब कुछ.
(बताते हैं कि जिन किसानों ने मुआवजे की रकम नहीं ली थी, वो रकम अंग्रेजों ने किसी बैंक में जमा करवा दी थी).

खैर, राष्ट्रपति भवन अपने आप मे बेजोड़ है. अथाह खूबियां और ढेर सारे किस्से. राष्ट्राध्यक्ष के निवास के हिसाब दुनिया में सातवीं सबसे बड़ी जगह. पाश्चात्य, मुगल से लेकर पारम्परिक भारतीय शैली का समावेश. करीब 1 अरब ईंट और 3,000,000 क्यूबिक फीट पत्थर का इस्तेमाल. अधिकतर पत्थर राजस्थान से लाया गया. बताते हैं कि रायसीना पहाड़ी जयपुर स्टेट का हिस्सा थी और इसीलिए महाराजा माधो सिंह ने वायसराय हाउस के ठीक सामने 'जयपुर कॉलम' नामक एक स्तंभ भी खड़ा किया. निर्माण सामग्री लाने के लिए बाकायदा बदरपुर और वर्तमान कनॉट सर्कल के बीच रेल की पटरियां भी बिछाई गईं. यहां लाल रंग की बजरी आज भी बदरपुर कनेक्शन को जिंदा रखे हुए हैं. राष्ट्रपति भवन के निर्माण में सबसे बड़े ठेकेदार हारून-अल-राशिद थे, मैं आज तक खुशवंत सिंह के पिता सर सोभा सिंह को यहां का सबसे बड़ा ठेकेदार मानता आ रहा था.

हां, लूट्यन्स साब इस भवन को और भी भव्य बनाना चाहते थे लेकिन बजट की मारामारी के चलते उन्होंने निर्माण कार्य में 25% की कटौती कर दी. एक बात और, यह भवन 4 साल में बनना था. यूरोप लड़ाई में फंस गया, 17 साल लगे. 1931 में वायसराय यहां निवास करने आए और 17 साल बाद आखिरी वायसराय माउंटबेटन हमारी धरती पर अंग्रेजी साम्राज्य का सूरज डूबने के साथ ही इसे भारतीयों के हवाले कर गए.

वैसे, अंग्रेजों के प्रस्थान के बाद से ही भारत के राष्ट्रपति इस भवन के बेहद मामूली हिस्से में निवास करते रहे हैं.

(पहली तस्वीर 'दरबार हॉल' नामक उस जगह की है जहां देश की प्रथम सरकार ने शपथ ली और प्रधानमंत्री नेहरू ने 'नियति से वादा' वाला ऐतिहासिक भाषण दिया. उसके बाद तमाम सरकारों के शपथ ग्रहण यहीं होते आए हैं. दरबार हॉल में निजी तौर पर 'फील गुड' की एक और वजह यहां इस्तेमाल किए गए पत्थर भी हैं, जो (अधिसंख्य) जैसलमेर, मकराना, अजमेर, अलवर से लाए गए.)

अशोक जी विश्नोई (ACP, दिल्ली पुलिस) का विशेष आभार. हुसैन रिज़वी साब (इंडिया टीवी), अभिषेक जी आढा (ईटीवी) और मनोहरजी विश्नोई (पत्रिका) का विशेष सानिध्य.

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