गौरवशाली इतिहास से भटकती एक कौम!गौरवशाली इतिहास से भटकती एक कौम!
गोकुल सिंह अथवा गोकुला सिनसिनी गाँव का जाट था। 10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने किसानों की लगान बढ़ा दी थी व धार्मिक उन्माद को नियंत्रित करने में नाकाम साबित हो रही थी।
गोकुला ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने बहुत शक्तिशाली सेना भेजी। गोकुला को बंदी बना लिया गया और 1 जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने के लिये टुकडे़-टुकड़े कर मारा गया। गोकुला के बलिदान ने मुगल शासन के खातमें की शुरुआत की थी।
यह वो दौर था जब राजपूत सेवक मुगलों की गुलामी के खिलाफ मुंह तक खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाये थे परन्तु जैसा कि "दलपत विलास" के लेखक दलपत सिंह ने स्पष्ट कहा है की "राजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके।"ब्राह्मण धर्म व इस्लाम के बीच चल रही नूराकुश्ती को खत्म करने का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ। आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे। शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने किसानों-दलितों पर थोपे जा रहे करों के विरोध में बगावत का झंडा थामा और धार्मिक संघर्ष से परे मानवता के हित आवाज बुलंद करनी शुरू की।ब्राह्मण धर्म को जजिया कर में छूट का विरोध भी इस आंदोलन का हिस्सा था।हिंदुओं पर जजिया कर लगाया गया था तब ब्राह्मणों ने कहा कि हम हिन्दू नहीं है इस कर से हमे छूट दी जाए!मुगलों ने ब्राह्मणों को छूट दे दी थी।वीर गोकुलसिंह के आंदोलन के पीछे जब ब्राह्मण धर्मी लोग खड़े हुए तो किसानों ने यह कहकर भगा दिया था कि आप किसान नहीं हो!नंदराम जाट की मौत के बाद आंदोलन की बागडौर पूर्ण रूप से उदयसिंह तथा गोकुलसिंह के हाथों में आ गई।
मिथिहास से परे इतिहास की इस सच्चाई को कभी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों ने मुगलों के खिलाफ राज्य व्यवस्था सुचारू रूप से न चलाने व बहुसंख्यक जनता पर भारी लगान व धार्मिक उन्मादियों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों को नियंत्रित न कर पाने की नाकामी के खिलाफ बगावत कर दी थी। गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त किसान जनता के नेता थे।तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी। जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर वीर गोकुलसिंह के सामने लड़ने आना पड़ा था।
तात्कालिक शोषण,किसान अत्याचार और सरकारी मनमानी को चुनौती देने का श्रेय किसी को जाता है तो वो वीर गोकुलसिंह को दिया जाना चाहिए।
इस बात की चेतना कम ही लोगों को होगी कि वीरवर गोकुलसिंह का बलिदान, गुरू तेगबहादुर से 6 वर्ष पूर्व हुआ था। "दिसम्बर 1675 में गुरू तेगबहादुर का वध कराया गया था।" वध कराया गया था यह इतिहासकार द्वारा लिखा गया वाक्य बहुत कुछ कहता है!दिल्ली में मुगलों की कोतवाली के नजदीक बना शीशगंज गुरुद्वारा सिख लोगों द्वारा अपने महापुरुषों/गुरुओं के प्रति भावी पीढ़ी द्वारा जाहिर ऐसा सम्मान है जो सदियों तक सिख कौम की वीरता व गुरुओं के आदर्श को प्रकाशित करता रहेगा।दूसरी ओर, जब हम उस महापुरुष की ओर दृष्टि डालते हैं जो गुरू तेगबहादुर से 6वर्ष पूर्व शहीद हुआ था और उन्ही मूल्यों की रक्षार्थ शहीद हुआ था और जिसको दिल्ली की कोतवाली पर नहीं, आगरे की कोतवाली के लंबे-चौड़े चबूतरे पर, हजारों लोगों की हाहाकार करती भीड़ के सामने, लोहे की जंजीरों में जकड़कर लाया गया था और जिसको-जनता का मनोबल तोड़ने के इरादे से बड़ी पैशाचिकता के साथ, एक-एक जोड़ कुल्हाड़ियों से काटकर मार डाला गया था और बाकी लोगों की छोड़िए जाट कौम भी भूल गई! गोकुलसिंह सिर्फ़ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे!न उनका राज्य ही किसी ने छीना लिया था! न कोई पेंशन बंद करदी थी! बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापुर्वक, संधी करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी। शर्म आती है कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कागज के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके! कितना अहसान फ़रामोश कितना कृतघ्न्न है हमारा जाट समाज ! शाही इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नहीं किया। गुरू तेगबहादुर की गिरफ्तारी और वध का उल्लेख किसी भी समकालीन फारसी इतिहासग्रंथ में नहीं है। मेवाड़ के राणा प्रताप से लड़ने अकबर स्वयं नहीं गया था ! ब्रज के उन जाट योद्धाओं से लड़ने औरंगजेब को खुद जाना पड़ा था। फ़िर भी उनको पूर्णतया दबाया नहीं जा सका और न केवल जाट पुरूष बल्कि उनकी वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य के साथ उन सेनाओं का सामना करती रहीं। दुर्भाग्य की बात है कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख शाही टुकडों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया। यूरोपीय यात्री मनूची ने लिखा था...
"उसे इन विद्रोहियों के कारण असंख्य मुसीबतें उठानी पड़ीं और इन पर विजयी होकर लौटने के बाद भी, उसे अनेक बार अपने सेनापतियों को इनके विरुद्ध भेजने के लिए मजबूर होना पड़ा। विद्रोही गांवों में पहुँचने के बाद, ये सेनानायक शाही आज्ञाओं का पालन क़त्ल और सिर काटकर किया करते थे। अपनी सुरक्षा के लिए ग्रामीण कंटीले झाडियों में छिप जाते या अपनी कमजोर गढ़ियों में सरण लेते। स्त्रियां भाले और तीर लेकर अपने पतियों के पीछे खड़ी हो जातीं। जब पति अपने बंदूक को दाग चुका होता, पत्नी उसके हाथ में भाला थमा देती और स्वयं बंदूक को भरने लगती थी। इस प्रकार वे उस समय तक रक्षा करते थे, जब तक कि वे युद्ध जारी रखने में बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाते थे।जब वो मुगल सेना व घर के भेदीयों के आगे लाचार हो जाते तो पत्नियों-बहनों के सहयोग से भूखे शेरों की तरह शत्रु की पंक्तियों पर टूट पड़ते थे और अपनी बहादुरी व वीरता के बल पर अनेक बार युद्ध जीतने में सफल होते थे"।
मेरी जाट कौम में चौधर के भूखे,सत्ता के टुकड़ों पर पलने वाले दलाल पैदा हो गए!मैँ शारीरिक मौत को कभी मौत नहीं मानता।ईमान या जमीर का मर जाना ही असली मौत होती है।आज जाट कौम में गौरवशाली इतिहास की बात करने वाला कोई शूरवीर नजर नहीं आता है।
जिस प्रकार मुगलों के आगे राजपूतों ने हथियार डाल दिये उसी प्रकार आजादी के बाद जाट नेताओं ने ब्राह्मणवादी सत्ता के आगे समर्पण कर दिया है!समय-समय पर इक्के-दुक्के शूरवीरों ने प्रयास किया लेकिन कौम के दलाल हमेशा उन पर भारी पड़े!
जो जाट सिक्ख धर्म मे गए उन्होंने हर कालखंड में अपने ईमान का प्रदर्शन किया था व आज भी कर रहे है लेकिन जो जाट धर्म से परे काल्पनिक जड़ों पर जा खड़ा हुआ उनकी पौधशाला में दलालों की खरपतवार पैदा होती रही है।
कौम के बुजुर्गों!आपसे निवेदन है कि इस तरह गर्त में जाती कौम को देखने के बजाय अपनी पगड़ी संभालों!जाट कौम की माताओं से निवेदन है कि अपनी कोख की सार-संभाल करो!कौम के बुद्धिजीवियों से प्रार्थना है कि झूठ के तात्कालिक बवंडर पर बैठकर यात्रा करने के बजाय अपने खिलते फूलों को सही दिशा देने का काम करो!जाट कौम के धन्ना सेठों से निवेदन है कि ब्राह्मणवादी सत्ता में पद हासिल करने की दौड़ में जाट कौम की वीरता की मंडी इस तरह मत सजाओ कि जब गिरो तो कोई कंधा देने वाला भी नसीब न हो!
वीरों!जो पैदा हुआ है उनका मरना तय है।शरीर से मर जाना लेकिन अपने जमीर को कभी मत मरने देना!अपने ईमान की नुमाइश को कभी गर्त में मत जाने देना !हमारा जन्म मानव धर्म को जिंदा रखने के लिए हुआ है।हड़प्पा सभ्यता से लेकर आज तक हमने हर मोड़ पर व हर काल मे साबित किया है कि जाट प्रकृति प्रेमी सनातन धर्म का पालन करने वाले लोग है।
जाटों का इतिहास है बाकी सब मिथिहास है।मिथ्या व काल्पनिक रचनाओं में हमारी कौम आज बर्बाद हो रही है।माँओं!अपनी कोख के हीरों को ईमान से सुसज्जित करो!अपने कलेजे के टुकड़ों को संस्कार देकर जाट धर्म की दुहाई देकर झकझोरो!जाट कौम के मर्दों!अपनी मर्दानगी को यूँ दलाली,चौधर व नशे में बर्बाद मत होने दो!
एक जाट का जन्म न्याय,उस पर कार्य व सत्यवादिता को स्थापित करने लिए होता है।जब जन्म हो तो हर जाति-धर्म के लोग स्वागत करें और शहादत दो तो हर जाति-धर्म के नर-नारी-बच्चे बिलखते नजर आए तो समझिए कि असली जाट का जीवन जिया है।
सुरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत।
पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहुँ न छोड़े खेत॥
प्रेमाराम सियाग
गोकुल सिंह अथवा गोकुला सिनसिनी गाँव का जाट था। 10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने किसानों की लगान बढ़ा दी थी व धार्मिक उन्माद को नियंत्रित करने में नाकाम साबित हो रही थी। गोकुला ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने बहुत शक्तिशाली सेना भेजी। गोकुला को बंदी बना लिया गया और 1 जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने के लिये टुकडे़-टुकड़े कर मारा गया। गोकुला के बलिदान ने मुगल शासन के खातमें की शुरुआत की थी।
यह वो दौर था जब राजपूत सेवक मुगलों की गुलामी के खिलाफ मुंह तक खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाये थे परन्तु जैसा कि "दलपत विलास" के लेखक दलपत सिंह ने स्पष्ट कहा है की "राजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके।"ब्राह्मण धर्म व इस्लाम के बीच चल रही नूराकुश्ती को खत्म करने का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ। आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे। शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने किसानों-दलितों पर थोपे जा रहे करों के विरोध में बगावत का झंडा थामा और धार्मिक संघर्ष से परे मानवता के हित आवाज बुलंद करनी शुरू की।ब्राह्मण धर्म को जजिया कर में छूट का विरोध भी इस आंदोलन का हिस्सा था।हिंदुओं पर जजिया कर लगाया गया था तब ब्राह्मणों ने कहा कि हम हिन्दू नहीं है इस कर से हमे छूट दी जाए!मुगलों ने ब्राह्मणों को छूट दे दी थी।वीर गोकुलसिंह के आंदोलन के पीछे जब ब्राह्मण धर्मी लोग खड़े हुए तो किसानों ने यह कहकर भगा दिया था कि आप किसान नहीं हो!नंदराम जाट की मौत के बाद आंदोलन की बागडौर पूर्ण रूप से उदयसिंह तथा गोकुलसिंह के हाथों में आ गई।
मिथिहास से परे इतिहास की इस सच्चाई को कभी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों ने मुगलों के खिलाफ राज्य व्यवस्था सुचारू रूप से न चलाने व बहुसंख्यक जनता पर भारी लगान व धार्मिक उन्मादियों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों को नियंत्रित न कर पाने की नाकामी के खिलाफ बगावत कर दी थी। गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त किसान जनता के नेता थे।तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी। जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर वीर गोकुलसिंह के सामने लड़ने आना पड़ा था।
तात्कालिक शोषण,किसान अत्याचार और सरकारी मनमानी को चुनौती देने का श्रेय किसी को जाता है तो वो वीर गोकुलसिंह को दिया जाना चाहिए।
इस बात की चेतना कम ही लोगों को होगी कि वीरवर गोकुलसिंह का बलिदान, गुरू तेगबहादुर से 6 वर्ष पूर्व हुआ था। "दिसम्बर 1675 में गुरू तेगबहादुर का वध कराया गया था।" वध कराया गया था यह इतिहासकार द्वारा लिखा गया वाक्य बहुत कुछ कहता है!दिल्ली में मुगलों की कोतवाली के नजदीक बना शीशगंज गुरुद्वारा सिख लोगों द्वारा अपने महापुरुषों/गुरुओं के प्रति भावी पीढ़ी द्वारा जाहिर ऐसा सम्मान है जो सदियों तक सिख कौम की वीरता व गुरुओं के आदर्श को प्रकाशित करता रहेगा।दूसरी ओर, जब हम उस महापुरुष की ओर दृष्टि डालते हैं जो गुरू तेगबहादुर से 6वर्ष पूर्व शहीद हुआ था और उन्ही मूल्यों की रक्षार्थ शहीद हुआ था और जिसको दिल्ली की कोतवाली पर नहीं, आगरे की कोतवाली के लंबे-चौड़े चबूतरे पर, हजारों लोगों की हाहाकार करती भीड़ के सामने, लोहे की जंजीरों में जकड़कर लाया गया था और जिसको-जनता का मनोबल तोड़ने के इरादे से बड़ी पैशाचिकता के साथ, एक-एक जोड़ कुल्हाड़ियों से काटकर मार डाला गया था और बाकी लोगों की छोड़िए जाट कौम भी भूल गई! गोकुलसिंह सिर्फ़ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे!न उनका राज्य ही किसी ने छीना लिया था! न कोई पेंशन बंद करदी थी! बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापुर्वक, संधी करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी। शर्म आती है कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कागज के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके! कितना अहसान फ़रामोश कितना कृतघ्न्न है हमारा जाट समाज ! शाही इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नहीं किया। गुरू तेगबहादुर की गिरफ्तारी और वध का उल्लेख किसी भी समकालीन फारसी इतिहासग्रंथ में नहीं है। मेवाड़ के राणा प्रताप से लड़ने अकबर स्वयं नहीं गया था ! ब्रज के उन जाट योद्धाओं से लड़ने औरंगजेब को खुद जाना पड़ा था। फ़िर भी उनको पूर्णतया दबाया नहीं जा सका और न केवल जाट पुरूष बल्कि उनकी वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य के साथ उन सेनाओं का सामना करती रहीं। दुर्भाग्य की बात है कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख शाही टुकडों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया। यूरोपीय यात्री मनूची ने लिखा था...
"उसे इन विद्रोहियों के कारण असंख्य मुसीबतें उठानी पड़ीं और इन पर विजयी होकर लौटने के बाद भी, उसे अनेक बार अपने सेनापतियों को इनके विरुद्ध भेजने के लिए मजबूर होना पड़ा। विद्रोही गांवों में पहुँचने के बाद, ये सेनानायक शाही आज्ञाओं का पालन क़त्ल और सिर काटकर किया करते थे। अपनी सुरक्षा के लिए ग्रामीण कंटीले झाडियों में छिप जाते या अपनी कमजोर गढ़ियों में सरण लेते। स्त्रियां भाले और तीर लेकर अपने पतियों के पीछे खड़ी हो जातीं। जब पति अपने बंदूक को दाग चुका होता, पत्नी उसके हाथ में भाला थमा देती और स्वयं बंदूक को भरने लगती थी। इस प्रकार वे उस समय तक रक्षा करते थे, जब तक कि वे युद्ध जारी रखने में बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाते थे।जब वो मुगल सेना व घर के भेदीयों के आगे लाचार हो जाते तो पत्नियों-बहनों के सहयोग से भूखे शेरों की तरह शत्रु की पंक्तियों पर टूट पड़ते थे और अपनी बहादुरी व वीरता के बल पर अनेक बार युद्ध जीतने में सफल होते थे"।
मेरी जाट कौम में चौधर के भूखे,सत्ता के टुकड़ों पर पलने वाले दलाल पैदा हो गए!मैँ शारीरिक मौत को कभी मौत नहीं मानता।ईमान या जमीर का मर जाना ही असली मौत होती है।आज जाट कौम में गौरवशाली इतिहास की बात करने वाला कोई शूरवीर नजर नहीं आता है।
जिस प्रकार मुगलों के आगे राजपूतों ने हथियार डाल दिये उसी प्रकार आजादी के बाद जाट नेताओं ने ब्राह्मणवादी सत्ता के आगे समर्पण कर दिया है!समय-समय पर इक्के-दुक्के शूरवीरों ने प्रयास किया लेकिन कौम के दलाल हमेशा उन पर भारी पड़े!
जो जाट सिक्ख धर्म मे गए उन्होंने हर कालखंड में अपने ईमान का प्रदर्शन किया था व आज भी कर रहे है लेकिन जो जाट धर्म से परे काल्पनिक जड़ों पर जा खड़ा हुआ उनकी पौधशाला में दलालों की खरपतवार पैदा होती रही है।
कौम के बुजुर्गों!आपसे निवेदन है कि इस तरह गर्त में जाती कौम को देखने के बजाय अपनी पगड़ी संभालों!जाट कौम की माताओं से निवेदन है कि अपनी कोख की सार-संभाल करो!कौम के बुद्धिजीवियों से प्रार्थना है कि झूठ के तात्कालिक बवंडर पर बैठकर यात्रा करने के बजाय अपने खिलते फूलों को सही दिशा देने का काम करो!जाट कौम के धन्ना सेठों से निवेदन है कि ब्राह्मणवादी सत्ता में पद हासिल करने की दौड़ में जाट कौम की वीरता की मंडी इस तरह मत सजाओ कि जब गिरो तो कोई कंधा देने वाला भी नसीब न हो!
वीरों!जो पैदा हुआ है उनका मरना तय है।शरीर से मर जाना लेकिन अपने जमीर को कभी मत मरने देना!अपने ईमान की नुमाइश को कभी गर्त में मत जाने देना !हमारा जन्म मानव धर्म को जिंदा रखने के लिए हुआ है।हड़प्पा सभ्यता से लेकर आज तक हमने हर मोड़ पर व हर काल मे साबित किया है कि जाट प्रकृति प्रेमी सनातन धर्म का पालन करने वाले लोग है।
जाटों का इतिहास है बाकी सब मिथिहास है।मिथ्या व काल्पनिक रचनाओं में हमारी कौम आज बर्बाद हो रही है।माँओं!अपनी कोख के हीरों को ईमान से सुसज्जित करो!अपने कलेजे के टुकड़ों को संस्कार देकर जाट धर्म की दुहाई देकर झकझोरो!जाट कौम के मर्दों!अपनी मर्दानगी को यूँ दलाली,चौधर व नशे में बर्बाद मत होने दो!
एक जाट का जन्म न्याय,उस पर कार्य व सत्यवादिता को स्थापित करने लिए होता है।जब जन्म हो तो हर जाति-धर्म के लोग स्वागत करें और शहादत दो तो हर जाति-धर्म के नर-नारी-बच्चे बिलखते नजर आए तो समझिए कि असली जाट का जीवन जिया है।
सुरा सो पहचानिये, जो ल
ड़े दीन के हेत।
पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहुँ न छोड़े खेत॥
प्रेमाराम सियाग
गोकुल सिंह अथवा गोकुला सिनसिनी गाँव का जाट था। 10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने किसानों की लगान बढ़ा दी थी व धार्मिक उन्माद को नियंत्रित करने में नाकाम साबित हो रही थी।
गोकुला ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने बहुत शक्तिशाली सेना भेजी। गोकुला को बंदी बना लिया गया और 1 जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने के लिये टुकडे़-टुकड़े कर मारा गया। गोकुला के बलिदान ने मुगल शासन के खातमें की शुरुआत की थी।
यह वो दौर था जब राजपूत सेवक मुगलों की गुलामी के खिलाफ मुंह तक खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाये थे परन्तु जैसा कि "दलपत विलास" के लेखक दलपत सिंह ने स्पष्ट कहा है की "राजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके।"ब्राह्मण धर्म व इस्लाम के बीच चल रही नूराकुश्ती को खत्म करने का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ। आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे। शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने किसानों-दलितों पर थोपे जा रहे करों के विरोध में बगावत का झंडा थामा और धार्मिक संघर्ष से परे मानवता के हित आवाज बुलंद करनी शुरू की।ब्राह्मण धर्म को जजिया कर में छूट का विरोध भी इस आंदोलन का हिस्सा था।हिंदुओं पर जजिया कर लगाया गया था तब ब्राह्मणों ने कहा कि हम हिन्दू नहीं है इस कर से हमे छूट दी जाए!मुगलों ने ब्राह्मणों को छूट दे दी थी।वीर गोकुलसिंह के आंदोलन के पीछे जब ब्राह्मण धर्मी लोग खड़े हुए तो किसानों ने यह कहकर भगा दिया था कि आप किसान नहीं हो!नंदराम जाट की मौत के बाद आंदोलन की बागडौर पूर्ण रूप से उदयसिंह तथा गोकुलसिंह के हाथों में आ गई।
मिथिहास से परे इतिहास की इस सच्चाई को कभी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों ने मुगलों के खिलाफ राज्य व्यवस्था सुचारू रूप से न चलाने व बहुसंख्यक जनता पर भारी लगान व धार्मिक उन्मादियों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों को नियंत्रित न कर पाने की नाकामी के खिलाफ बगावत कर दी थी। गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त किसान जनता के नेता थे।तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी। जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर वीर गोकुलसिंह के सामने लड़ने आना पड़ा था।
तात्कालिक शोषण,किसान अत्याचार और सरकारी मनमानी को चुनौती देने का श्रेय किसी को जाता है तो वो वीर गोकुलसिंह को दिया जाना चाहिए।
इस बात की चेतना कम ही लोगों को होगी कि वीरवर गोकुलसिंह का बलिदान, गुरू तेगबहादुर से 6 वर्ष पूर्व हुआ था। "दिसम्बर 1675 में गुरू तेगबहादुर का वध कराया गया था।" वध कराया गया था यह इतिहासकार द्वारा लिखा गया वाक्य बहुत कुछ कहता है!दिल्ली में मुगलों की कोतवाली के नजदीक बना शीशगंज गुरुद्वारा सिख लोगों द्वारा अपने महापुरुषों/गुरुओं के प्रति भावी पीढ़ी द्वारा जाहिर ऐसा सम्मान है जो सदियों तक सिख कौम की वीरता व गुरुओं के आदर्श को प्रकाशित करता रहेगा।दूसरी ओर, जब हम उस महापुरुष की ओर दृष्टि डालते हैं जो गुरू तेगबहादुर से 6वर्ष पूर्व शहीद हुआ था और उन्ही मूल्यों की रक्षार्थ शहीद हुआ था और जिसको दिल्ली की कोतवाली पर नहीं, आगरे की कोतवाली के लंबे-चौड़े चबूतरे पर, हजारों लोगों की हाहाकार करती भीड़ के सामने, लोहे की जंजीरों में जकड़कर लाया गया था और जिसको-जनता का मनोबल तोड़ने के इरादे से बड़ी पैशाचिकता के साथ, एक-एक जोड़ कुल्हाड़ियों से काटकर मार डाला गया था और बाकी लोगों की छोड़िए जाट कौम भी भूल गई! गोकुलसिंह सिर्फ़ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे!न उनका राज्य ही किसी ने छीना लिया था! न कोई पेंशन बंद करदी थी! बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापुर्वक, संधी करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी। शर्म आती है कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कागज के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके! कितना अहसान फ़रामोश कितना कृतघ्न्न है हमारा जाट समाज ! शाही इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नहीं किया। गुरू तेगबहादुर की गिरफ्तारी और वध का उल्लेख किसी भी समकालीन फारसी इतिहासग्रंथ में नहीं है। मेवाड़ के राणा प्रताप से लड़ने अकबर स्वयं नहीं गया था ! ब्रज के उन जाट योद्धाओं से लड़ने औरंगजेब को खुद जाना पड़ा था। फ़िर भी उनको पूर्णतया दबाया नहीं जा सका और न केवल जाट पुरूष बल्कि उनकी वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य के साथ उन सेनाओं का सामना करती रहीं। दुर्भाग्य की बात है कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख शाही टुकडों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया। यूरोपीय यात्री मनूची ने लिखा था...
"उसे इन विद्रोहियों के कारण असंख्य मुसीबतें उठानी पड़ीं और इन पर विजयी होकर लौटने के बाद भी, उसे अनेक बार अपने सेनापतियों को इनके विरुद्ध भेजने के लिए मजबूर होना पड़ा। विद्रोही गांवों में पहुँचने के बाद, ये सेनानायक शाही आज्ञाओं का पालन क़त्ल और सिर काटकर किया करते थे। अपनी सुरक्षा के लिए ग्रामीण कंटीले झाडियों में छिप जाते या अपनी कमजोर गढ़ियों में सरण लेते। स्त्रियां भाले और तीर लेकर अपने पतियों के पीछे खड़ी हो जातीं। जब पति अपने बंदूक को दाग चुका होता, पत्नी उसके हाथ में भाला थमा देती और स्वयं बंदूक को भरने लगती थी। इस प्रकार वे उस समय तक रक्षा करते थे, जब तक कि वे युद्ध जारी रखने में बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाते थे।जब वो मुगल सेना व घर के भेदीयों के आगे लाचार हो जाते तो पत्नियों-बहनों के सहयोग से भूखे शेरों की तरह शत्रु की पंक्तियों पर टूट पड़ते थे और अपनी बहादुरी व वीरता के बल पर अनेक बार युद्ध जीतने में सफल होते थे"।
मेरी जाट कौम में चौधर के भूखे,सत्ता के टुकड़ों पर पलने वाले दलाल पैदा हो गए!मैँ शारीरिक मौत को कभी मौत नहीं मानता।ईमान या जमीर का मर जाना ही असली मौत होती है।आज जाट कौम में गौरवशाली इतिहास की बात करने वाला कोई शूरवीर नजर नहीं आता है।
जिस प्रकार मुगलों के आगे राजपूतों ने हथियार डाल दिये उसी प्रकार आजादी के बाद जाट नेताओं ने ब्राह्मणवादी सत्ता के आगे समर्पण कर दिया है!समय-समय पर इक्के-दुक्के शूरवीरों ने प्रयास किया लेकिन कौम के दलाल हमेशा उन पर भारी पड़े!
जो जाट सिक्ख धर्म मे गए उन्होंने हर कालखंड में अपने ईमान का प्रदर्शन किया था व आज भी कर रहे है लेकिन जो जाट धर्म से परे काल्पनिक जड़ों पर जा खड़ा हुआ उनकी पौधशाला में दलालों की खरपतवार पैदा होती रही है।
कौम के बुजुर्गों!आपसे निवेदन है कि इस तरह गर्त में जाती कौम को देखने के बजाय अपनी पगड़ी संभालों!जाट कौम की माताओं से निवेदन है कि अपनी कोख की सार-संभाल करो!कौम के बुद्धिजीवियों से प्रार्थना है कि झूठ के तात्कालिक बवंडर पर बैठकर यात्रा करने के बजाय अपने खिलते फूलों को सही दिशा देने का काम करो!जाट कौम के धन्ना सेठों से निवेदन है कि ब्राह्मणवादी सत्ता में पद हासिल करने की दौड़ में जाट कौम की वीरता की मंडी इस तरह मत सजाओ कि जब गिरो तो कोई कंधा देने वाला भी नसीब न हो!
वीरों!जो पैदा हुआ है उनका मरना तय है।शरीर से मर जाना लेकिन अपने जमीर को कभी मत मरने देना!अपने ईमान की नुमाइश को कभी गर्त में मत जाने देना !हमारा जन्म मानव धर्म को जिंदा रखने के लिए हुआ है।हड़प्पा सभ्यता से लेकर आज तक हमने हर मोड़ पर व हर काल मे साबित किया है कि जाट प्रकृति प्रेमी सनातन धर्म का पालन करने वाले लोग है।
जाटों का इतिहास है बाकी सब मिथिहास है।मिथ्या व काल्पनिक रचनाओं में हमारी कौम आज बर्बाद हो रही है।माँओं!अपनी कोख के हीरों को ईमान से सुसज्जित करो!अपने कलेजे के टुकड़ों को संस्कार देकर जाट धर्म की दुहाई देकर झकझोरो!जाट कौम के मर्दों!अपनी मर्दानगी को यूँ दलाली,चौधर व नशे में बर्बाद मत होने दो!
एक जाट का जन्म न्याय,उस पर कार्य व सत्यवादिता को स्थापित करने लिए होता है।जब जन्म हो तो हर जाति-धर्म के लोग स्वागत करें और शहादत दो तो हर जाति-धर्म के नर-नारी-बच्चे बिलखते नजर आए तो समझिए कि असली जाट का जीवन जिया है।
सुरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत।
पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहुँ न छोड़े खेत॥
प्रेमाराम सियाग
गोकुल सिंह अथवा गोकुला सिनसिनी गाँव का जाट था। 10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने किसानों की लगान बढ़ा दी थी व धार्मिक उन्माद को नियंत्रित करने में नाकाम साबित हो रही थी। गोकुला ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने बहुत शक्तिशाली सेना भेजी। गोकुला को बंदी बना लिया गया और 1 जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने के लिये टुकडे़-टुकड़े कर मारा गया। गोकुला के बलिदान ने मुगल शासन के खातमें की शुरुआत की थी।
यह वो दौर था जब राजपूत सेवक मुगलों की गुलामी के खिलाफ मुंह तक खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाये थे परन्तु जैसा कि "दलपत विलास" के लेखक दलपत सिंह ने स्पष्ट कहा है की "राजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके।"ब्राह्मण धर्म व इस्लाम के बीच चल रही नूराकुश्ती को खत्म करने का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ। आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे। शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने किसानों-दलितों पर थोपे जा रहे करों के विरोध में बगावत का झंडा थामा और धार्मिक संघर्ष से परे मानवता के हित आवाज बुलंद करनी शुरू की।ब्राह्मण धर्म को जजिया कर में छूट का विरोध भी इस आंदोलन का हिस्सा था।हिंदुओं पर जजिया कर लगाया गया था तब ब्राह्मणों ने कहा कि हम हिन्दू नहीं है इस कर से हमे छूट दी जाए!मुगलों ने ब्राह्मणों को छूट दे दी थी।वीर गोकुलसिंह के आंदोलन के पीछे जब ब्राह्मण धर्मी लोग खड़े हुए तो किसानों ने यह कहकर भगा दिया था कि आप किसान नहीं हो!नंदराम जाट की मौत के बाद आंदोलन की बागडौर पूर्ण रूप से उदयसिंह तथा गोकुलसिंह के हाथों में आ गई।
मिथिहास से परे इतिहास की इस सच्चाई को कभी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों ने मुगलों के खिलाफ राज्य व्यवस्था सुचारू रूप से न चलाने व बहुसंख्यक जनता पर भारी लगान व धार्मिक उन्मादियों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों को नियंत्रित न कर पाने की नाकामी के खिलाफ बगावत कर दी थी। गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त किसान जनता के नेता थे।तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी। जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर वीर गोकुलसिंह के सामने लड़ने आना पड़ा था।
तात्कालिक शोषण,किसान अत्याचार और सरकारी मनमानी को चुनौती देने का श्रेय किसी को जाता है तो वो वीर गोकुलसिंह को दिया जाना चाहिए।
इस बात की चेतना कम ही लोगों को होगी कि वीरवर गोकुलसिंह का बलिदान, गुरू तेगबहादुर से 6 वर्ष पूर्व हुआ था। "दिसम्बर 1675 में गुरू तेगबहादुर का वध कराया गया था।" वध कराया गया था यह इतिहासकार द्वारा लिखा गया वाक्य बहुत कुछ कहता है!दिल्ली में मुगलों की कोतवाली के नजदीक बना शीशगंज गुरुद्वारा सिख लोगों द्वारा अपने महापुरुषों/गुरुओं के प्रति भावी पीढ़ी द्वारा जाहिर ऐसा सम्मान है जो सदियों तक सिख कौम की वीरता व गुरुओं के आदर्श को प्रकाशित करता रहेगा।दूसरी ओर, जब हम उस महापुरुष की ओर दृष्टि डालते हैं जो गुरू तेगबहादुर से 6वर्ष पूर्व शहीद हुआ था और उन्ही मूल्यों की रक्षार्थ शहीद हुआ था और जिसको दिल्ली की कोतवाली पर नहीं, आगरे की कोतवाली के लंबे-चौड़े चबूतरे पर, हजारों लोगों की हाहाकार करती भीड़ के सामने, लोहे की जंजीरों में जकड़कर लाया गया था और जिसको-जनता का मनोबल तोड़ने के इरादे से बड़ी पैशाचिकता के साथ, एक-एक जोड़ कुल्हाड़ियों से काटकर मार डाला गया था और बाकी लोगों की छोड़िए जाट कौम भी भूल गई! गोकुलसिंह सिर्फ़ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे!न उनका राज्य ही किसी ने छीना लिया था! न कोई पेंशन बंद करदी थी! बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापुर्वक, संधी करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी। शर्म आती है कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कागज के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके! कितना अहसान फ़रामोश कितना कृतघ्न्न है हमारा जाट समाज ! शाही इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नहीं किया। गुरू तेगबहादुर की गिरफ्तारी और वध का उल्लेख किसी भी समकालीन फारसी इतिहासग्रंथ में नहीं है। मेवाड़ के राणा प्रताप से लड़ने अकबर स्वयं नहीं गया था ! ब्रज के उन जाट योद्धाओं से लड़ने औरंगजेब को खुद जाना पड़ा था। फ़िर भी उनको पूर्णतया दबाया नहीं जा सका और न केवल जाट पुरूष बल्कि उनकी वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य के साथ उन सेनाओं का सामना करती रहीं। दुर्भाग्य की बात है कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख शाही टुकडों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया। यूरोपीय यात्री मनूची ने लिखा था...
"उसे इन विद्रोहियों के कारण असंख्य मुसीबतें उठानी पड़ीं और इन पर विजयी होकर लौटने के बाद भी, उसे अनेक बार अपने सेनापतियों को इनके विरुद्ध भेजने के लिए मजबूर होना पड़ा। विद्रोही गांवों में पहुँचने के बाद, ये सेनानायक शाही आज्ञाओं का पालन क़त्ल और सिर काटकर किया करते थे। अपनी सुरक्षा के लिए ग्रामीण कंटीले झाडियों में छिप जाते या अपनी कमजोर गढ़ियों में सरण लेते। स्त्रियां भाले और तीर लेकर अपने पतियों के पीछे खड़ी हो जातीं। जब पति अपने बंदूक को दाग चुका होता, पत्नी उसके हाथ में भाला थमा देती और स्वयं बंदूक को भरने लगती थी। इस प्रकार वे उस समय तक रक्षा करते थे, जब तक कि वे युद्ध जारी रखने में बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाते थे।जब वो मुगल सेना व घर के भेदीयों के आगे लाचार हो जाते तो पत्नियों-बहनों के सहयोग से भूखे शेरों की तरह शत्रु की पंक्तियों पर टूट पड़ते थे और अपनी बहादुरी व वीरता के बल पर अनेक बार युद्ध जीतने में सफल होते थे"।
मेरी जाट कौम में चौधर के भूखे,सत्ता के टुकड़ों पर पलने वाले दलाल पैदा हो गए!मैँ शारीरिक मौत को कभी मौत नहीं मानता।ईमान या जमीर का मर जाना ही असली मौत होती है।आज जाट कौम में गौरवशाली इतिहास की बात करने वाला कोई शूरवीर नजर नहीं आता है।
जिस प्रकार मुगलों के आगे राजपूतों ने हथियार डाल दिये उसी प्रकार आजादी के बाद जाट नेताओं ने ब्राह्मणवादी सत्ता के आगे समर्पण कर दिया है!समय-समय पर इक्के-दुक्के शूरवीरों ने प्रयास किया लेकिन कौम के दलाल हमेशा उन पर भारी पड़े!
जो जाट सिक्ख धर्म मे गए उन्होंने हर कालखंड में अपने ईमान का प्रदर्शन किया था व आज भी कर रहे है लेकिन जो जाट धर्म से परे काल्पनिक जड़ों पर जा खड़ा हुआ उनकी पौधशाला में दलालों की खरपतवार पैदा होती रही है।
कौम के बुजुर्गों!आपसे निवेदन है कि इस तरह गर्त में जाती कौम को देखने के बजाय अपनी पगड़ी संभालों!जाट कौम की माताओं से निवेदन है कि अपनी कोख की सार-संभाल करो!कौम के बुद्धिजीवियों से प्रार्थना है कि झूठ के तात्कालिक बवंडर पर बैठकर यात्रा करने के बजाय अपने खिलते फूलों को सही दिशा देने का काम करो!जाट कौम के धन्ना सेठों से निवेदन है कि ब्राह्मणवादी सत्ता में पद हासिल करने की दौड़ में जाट कौम की वीरता की मंडी इस तरह मत सजाओ कि जब गिरो तो कोई कंधा देने वाला भी नसीब न हो!
वीरों!जो पैदा हुआ है उनका मरना तय है।शरीर से मर जाना लेकिन अपने जमीर को कभी मत मरने देना!अपने ईमान की नुमाइश को कभी गर्त में मत जाने देना !हमारा जन्म मानव धर्म को जिंदा रखने के लिए हुआ है।हड़प्पा सभ्यता से लेकर आज तक हमने हर मोड़ पर व हर काल मे साबित किया है कि जाट प्रकृति प्रेमी सनातन धर्म का पालन करने वाले लोग है।
जाटों का इतिहास है बाकी सब मिथिहास है।मिथ्या व काल्पनिक रचनाओं में हमारी कौम आज बर्बाद हो रही है।माँओं!अपनी कोख के हीरों को ईमान से सुसज्जित करो!अपने कलेजे के टुकड़ों को संस्कार देकर जाट धर्म की दुहाई देकर झकझोरो!जाट कौम के मर्दों!अपनी मर्दानगी को यूँ दलाली,चौधर व नशे में बर्बाद मत होने दो!
एक जाट का जन्म न्याय,उस पर कार्य व सत्यवादिता को स्थापित करने लिए होता है।जब जन्म हो तो हर जाति-धर्म के लोग स्वागत करें और शहादत दो तो हर जाति-धर्म के नर-नारी-बच्चे बिलखते नजर आए तो समझिए कि असली जाट का जीवन जिया है।
सुरा सो पहचानिये, जो ल
ड़े दीन के हेत।
पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहुँ न छोड़े खेत॥
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