पाखण्डवाद के विरोध में हमारी कमेरी जाट कौम ने सदियों से संघर्ष करने के बाद भी आखिरकार आज अपने हथियार डाल दिये हैं । इसी का परिणाम है कि आज इस बहादुर किसान कौम के नौजवान शेर पागलों की तरह कंधों पर कांवड़ उठाये घूम रहे हैं और रास्तों में गाड़ियों के नीचे कुत्ते, बिल्लियों की तरह कुचले जा रहे हैं वरना कभी इन्हीं के पूर्वजों ने आक्रमणकारियों और पाखण्डियों को कुचला था । जौत की जमीन रही नहीं और रोजगार मिला नहीं तो शादी हुई नहीं तो फिर इन्हें पाखण्डियों ने बहकाया गया कि कावड़ लाओ दुल्हन आएगी । शायद इन्हें पता नहीं दुल्हनों की हत्या तो पेट में ही हो गई थी । कुछ गांजा, चरस और भांग का लुत्फ उठाने जाते हैं तो कुछ शिविरों में हलवा, पूरी खाने जाते हैं । एक अनुमान के अनुसार हर साल औसतन आठ लाख जाट यह पागलपन कर रहे हैं जिसमें औसतन एक कावड़िया लगभग 10 हजार तक खर्च करके प्रति वर्ष जाट कौम का 80 करोड़ रुपया सरेआम बर्बाद किया जा रहा है । यह कार्य लगभग 20 सालों से चल रहा है और बढ़ता ही जा रहा है ।
जिन जाटों के पास किसी कारण से आज पैसा आ गया वे इन कावड़ियों के लिए शिविर लगाकर अपनी ही कौम को धर्म के नाम पर बर्बादी की तरफ धकेल रहे हैं । यह आस्था नहीं, पागलपन है इससे अच्छा तो कौम के कई होशियार गरीब बच्चों को अपनाकर दिल्ली या बड़े शहरों में पढ़ाकर और कोचिंग दिलाकर आई.ए.एस. बना दे तो देश के कई जिलों पर हमारा प्रशासनिक कब्जा हो जाता लेकिन ये पैसे वाले जाट भी कौम को बर्बाद करने में अग्रणी हैं । पूरे भारत से प्रतिदिन औसतन तीन हजार जाट अपने मृतकों का पिंड दान कराने गंगा जाते हैं जिसमें प्रति मृतक कम से कम दस हजार रुपये खर्चा आता है अर्थात् लगभग बीस अरब रुपया सरेआम प्रतिवर्ष अंधविश्वास की भेंट चढ़ रहा है लेकिन खुशी है कि कई गांवों के जाट इस कुप्रथा से दूर हैं उनमे मेरा गांव कतरियासर भी है । इसी प्रकार सम्पूर्ण जाट समाज में प्रतिवर्ष एक लाख से भी अधिक मृत्यु भोज होते हैं अर्थात् जाटों को भी मरे पर खाने की लत लग गई है जिसमें औसतन प्रति भोज पर 2 लाख रुपया तक खर्च होता है जो लगभग 20 अरब रुपये बनता है । यह सारी पैसों की बर्बादी झूठे धर्म और स्वर्ग के नाम पर भेंट चढ़ जाती है जबकि प्रत्येक मरने वाले के नाम से पहले स्वर्गीय लिखा जाता है (चाहे खर्च करो या न करो) तो फिर नरक है ही कहां ? जो कुछ भी है वह इसी धरती पर है । राजस्थान तथा दक्षिण हरयाणा इस कुप्रथा में अग्रणी हैं ।अभी लगभग पिछले 20 वर्ष से केवल राजस्थान व हरयाणा में जाट बाहुल्य गांवों में लगभग 30000 मंदिर बन चुके हैं जिन पर कुल लगभग 9अरब 60 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं । अभी गांवों में मोहल्लावार होड़ लगी है कि कौन कितना ऊंचा मन्दिर बनवाता है ? बाद में इसी मन्दिर में एक पाखंडी को रोजगार दिया जाता है जबकि जाटों के खुद के बच्चे बेरोजगार हैं । यही पाखण्डी गांवों की औरतों को बहकाता व फुसलाता है, अंधविश्वास फैलाता है और पता नहीं क्या कुछ करता होगा? अपने बच्चों को स्कूल में बैठने के लिए टाट (दरी) नहीं लेकिन मन्दिर का पंडा पंखे नीचे बैठ कर हमारे बच्चों की जन्म-पत्री बना रहा है जबकि स्वयं उनके बच्चे विधवा और विधुर हो रहे हैं लेकिन फिर भी हमारे बच्चों की जन्म-पत्री में हमारा वर्ण शूद्र लिखता है । याद करो हमारे पूर्वज और हम भी आज हर बुराई के लिए बोलते हैं ‘पंडा छोड़ो और छुड़वाओ’ यह पंडा शब्द इसी पाखण्डी के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है जबकि हम इसी पंडे को आज अपने घर लेकर आ रहे है । आज इसी पाखंडवाद का परिणाम है कि जाटों के घरों में अपने स्वर्गीय माता-पिताओं, पूर्वजों और जाट महापुरुषों के चित्रों की बजाय उन धार्मिक मठाधीशों के चित्रा मिलेंगे जिनका परिवार ने नाम दान ले रखा है जबकिइन मठाधीशों के खानदान, जात-पात, गोत्र-नात धर्म कर्म आदि का कोई पता नहीं होता यदि किसी जाट के घर अपने चहेते राजनीतिज्ञ के साथ अपना चित्र खिंचवाकर लगा देता है तो वह अपने को धन्य समझता है । जबकि हमको जिन्होंने इस धरती पर आने का मौका दिया, पहचान दी और सिर छुपाने के लिए झोपड़ी दी उन्हें भुला दिया गया । जबकि जाट कौम ने हमेशा से ही चित्र की बजाय चरित्र को अधिक महत्त्व दिया था । यदि हम आस्था के नाम पर पाखंडवाद पर खर्च करने वाले अरबों रुपयों को बचा लें तो एक ही वर्ष में दिल्ली में राष्ट्रपति भवन से बड़ा ‘जाट भवन’ तथा प्रतिवर्ष कई जाट मैडिकल कॉलेज व इंजीनियरिंग कॉलेज तथा गांवों में सैकड़ों स्टेडियम बना सकते हैं । लेकिन आज जाट कौम इस पाखण्डवाद की चपेट में आ गई और इसके शोर शराबे में कुछ भी सुनाई/दिखाई नहीं दे रहा है । जाट कौम संसार की सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष कौम रही है लेकिन आज ये कौम पाखण्डवादियों के चंगुल में फंसकर बर्बाद हो रही है
जिन जाटों के पास किसी कारण से आज पैसा आ गया वे इन कावड़ियों के लिए शिविर लगाकर अपनी ही कौम को धर्म के नाम पर बर्बादी की तरफ धकेल रहे हैं । यह आस्था नहीं, पागलपन है इससे अच्छा तो कौम के कई होशियार गरीब बच्चों को अपनाकर दिल्ली या बड़े शहरों में पढ़ाकर और कोचिंग दिलाकर आई.ए.एस. बना दे तो देश के कई जिलों पर हमारा प्रशासनिक कब्जा हो जाता लेकिन ये पैसे वाले जाट भी कौम को बर्बाद करने में अग्रणी हैं । पूरे भारत से प्रतिदिन औसतन तीन हजार जाट अपने मृतकों का पिंड दान कराने गंगा जाते हैं जिसमें प्रति मृतक कम से कम दस हजार रुपये खर्चा आता है अर्थात् लगभग बीस अरब रुपया सरेआम प्रतिवर्ष अंधविश्वास की भेंट चढ़ रहा है लेकिन खुशी है कि कई गांवों के जाट इस कुप्रथा से दूर हैं उनमे मेरा गांव कतरियासर भी है । इसी प्रकार सम्पूर्ण जाट समाज में प्रतिवर्ष एक लाख से भी अधिक मृत्यु भोज होते हैं अर्थात् जाटों को भी मरे पर खाने की लत लग गई है जिसमें औसतन प्रति भोज पर 2 लाख रुपया तक खर्च होता है जो लगभग 20 अरब रुपये बनता है । यह सारी पैसों की बर्बादी झूठे धर्म और स्वर्ग के नाम पर भेंट चढ़ जाती है जबकि प्रत्येक मरने वाले के नाम से पहले स्वर्गीय लिखा जाता है (चाहे खर्च करो या न करो) तो फिर नरक है ही कहां ? जो कुछ भी है वह इसी धरती पर है । राजस्थान तथा दक्षिण हरयाणा इस कुप्रथा में अग्रणी हैं ।अभी लगभग पिछले 20 वर्ष से केवल राजस्थान व हरयाणा में जाट बाहुल्य गांवों में लगभग 30000 मंदिर बन चुके हैं जिन पर कुल लगभग 9अरब 60 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं । अभी गांवों में मोहल्लावार होड़ लगी है कि कौन कितना ऊंचा मन्दिर बनवाता है ? बाद में इसी मन्दिर में एक पाखंडी को रोजगार दिया जाता है जबकि जाटों के खुद के बच्चे बेरोजगार हैं । यही पाखण्डी गांवों की औरतों को बहकाता व फुसलाता है, अंधविश्वास फैलाता है और पता नहीं क्या कुछ करता होगा? अपने बच्चों को स्कूल में बैठने के लिए टाट (दरी) नहीं लेकिन मन्दिर का पंडा पंखे नीचे बैठ कर हमारे बच्चों की जन्म-पत्री बना रहा है जबकि स्वयं उनके बच्चे विधवा और विधुर हो रहे हैं लेकिन फिर भी हमारे बच्चों की जन्म-पत्री में हमारा वर्ण शूद्र लिखता है । याद करो हमारे पूर्वज और हम भी आज हर बुराई के लिए बोलते हैं ‘पंडा छोड़ो और छुड़वाओ’ यह पंडा शब्द इसी पाखण्डी के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है जबकि हम इसी पंडे को आज अपने घर लेकर आ रहे है । आज इसी पाखंडवाद का परिणाम है कि जाटों के घरों में अपने स्वर्गीय माता-पिताओं, पूर्वजों और जाट महापुरुषों के चित्रों की बजाय उन धार्मिक मठाधीशों के चित्रा मिलेंगे जिनका परिवार ने नाम दान ले रखा है जबकिइन मठाधीशों के खानदान, जात-पात, गोत्र-नात धर्म कर्म आदि का कोई पता नहीं होता यदि किसी जाट के घर अपने चहेते राजनीतिज्ञ के साथ अपना चित्र खिंचवाकर लगा देता है तो वह अपने को धन्य समझता है । जबकि हमको जिन्होंने इस धरती पर आने का मौका दिया, पहचान दी और सिर छुपाने के लिए झोपड़ी दी उन्हें भुला दिया गया । जबकि जाट कौम ने हमेशा से ही चित्र की बजाय चरित्र को अधिक महत्त्व दिया था । यदि हम आस्था के नाम पर पाखंडवाद पर खर्च करने वाले अरबों रुपयों को बचा लें तो एक ही वर्ष में दिल्ली में राष्ट्रपति भवन से बड़ा ‘जाट भवन’ तथा प्रतिवर्ष कई जाट मैडिकल कॉलेज व इंजीनियरिंग कॉलेज तथा गांवों में सैकड़ों स्टेडियम बना सकते हैं । लेकिन आज जाट कौम इस पाखण्डवाद की चपेट में आ गई और इसके शोर शराबे में कुछ भी सुनाई/दिखाई नहीं दे रहा है । जाट कौम संसार की सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष कौम रही है लेकिन आज ये कौम पाखण्डवादियों के चंगुल में फंसकर बर्बाद हो रही है
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